.

आस | ऑनलाइन बुलेटिन

©मजीदबेग मुगल “शहज़ाद”

परिचय- वर्धा, महाराष्ट्र


 

गज़ल

 

ज़िन्दगी क्यों ये अब उदास लग रही मुझ को।

तुझ से मिलने की ही प्यास लग रही मुझ को।।

 

पता नहीं चला मैं खुद के बस में नहीं हुं ।

बहुत दूर वो लेकिन पास लग रही मुझ को ।।

 

कौन किसकी लगी चाहत इन चश्में दिद को।

सबसे अलग सही बिनदास लग रही मुझ को ।।

 

एक बार मिलने की तमन्ना जागी अर्मान है ।।

लगता चाहत की वो लाश लग रही मुझ को ।।

 

वो फटे जर्जर दामन को भला कितना सिये ।

वही जरूर मिलेगी आस लग रही मुझ को ।।

 

नींद में उसी का ही तो ख्याल बसा रहा वो।

दिनों दिन बड़ी ही झकास लग रही मुझ को ।।

 

‘शहज़ाद ‘किसी के खयालों में इतना खोये ।

चाहे कही भी हो तलाश लग रही मुझ को ।।

 

ये भी पढ़ें :

आसां है कहना- भूल जाओ | ऑनलाइन बुलेटिन


Back to top button