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दिवाली का कृषि मूलनिवासी इतिहास | ऑनलाइन बुलेटिन

दुनिया में अब तक जितने भी त्यौहार हुए हैं उनका जन्म उनके स्थानीय मौसम और कृषि पर आधारित रहा है। चाहे आप यूरोप के क्रिसमस की बात करें या अरब के ईद की या फिर भारत के किसी भी पारंपरिक त्यौहार की बात करें; सभी स्थानीय मौसम और कृषि पर आधारित रहे हैं। भारत के महत्वपूर्ण त्यौहारों में दिवाली का स्थान प्रमुख रहा है।

 

1978 के दौरान जब मेरी उम्र 5 साल की थी तब दिवाली के दिन पिता से प्रश्न कर बैठा “यह दिवाली त्यौहार क्यों मनाते हैं?” मुझे याद है पिता ने सहज रूप से इसका जवाब दिया “बेटा दिवाली के आसपास धान की फसल या तो पकने की होती है या पक जाती है।

 

इस समय यह दिवाली के कीड़े [1] जिसे माहूर (माहू) भी कहते हैं, धान की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। यह कीड़े आग की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिए कृषकों ने एक दिन यानी कार्तिक अमावस्या को सामूहिक रूप से दीए जलाने का फैसला किया। ताकि ज्यादा से ज्यादा कीड़े मारे जाएं और धान की फसल को कीड़े से बचाया जा सके। इसीलिए दिवाली मनाई जाती है।” ये जानकारी उन्हें कहां से मिली ये मालूम नहीं लेकिन उन्होंने अपने अनुभव से ये बात कही।

 

दरअसल, ज्यादातर त्यौहार पूर्णिमा में मनाए जाते हैं लेकिन दिवाली ही एक ऐसा त्यौहार है जो कि अमावस में मनाया जाता है। इसके पीछे भी यही कारण है कि ज्यादा से ज्यादा कीट दीए तक आकर्षित किए जा सके। यह तभी होगा जब रात अंधेरी होगी।

 

मुझे याद है जब उस समय हमारे घरों में दिवाली मनाई जाती थी, तब लाई-बताशों के सामने दीए जलाकर तथा धान की झालर [2] से घर सजा कर पूजा की जाती थी। उस समय तक गांव के लोग लक्ष्मी पूजा या राम वनवास से लौटने की कथा से अनभिज्ञ थे। छत्‍तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में स्थित हमारा घर दो तरफ से धान के खेतों से घिरा हुआ था। आसपास धान की खेती के कारण दिवाली के समय धान के कीड़े जीना मुहाल कर देते थे।

 

दिन भर तो ठीक रहता लेकिन जैसे ही शाम ढलती, यह कीड़े उड़कर घरों में जल रही रोशनी की ओर आ जाते और वहीं ढेर हो जाते। यह खाने में गिरते। काफी परेशानी होती इन कीड़ों से। हम इसे दिवाली के कीड़े कहा करते थे। ये बताना यहां पर महत्वपूर्ण है कि “छत्तीसगढ़ में दिवाली त्योहार को देवारी” नाम से संबोधित किया जाता है।

 

मेरा बाल मन यही समझता था कि यह कीड़े भी दिवाली मनाने आते हैं या लोगों को याद दिलाने आते हैं कि अब दिवाली मनाने का वक्त आ गया है। धान की खेती से इसका कोई संबंध है। यह बात बाद में समझ में आई। छत्तीसगढ़ के गांव में दिवाली का उत्सव मनाया जाता है। इसमें आज भी लाई- बताशें एवं स्थानीय पकवान की केंद्रीय भूमिका रहती है। इसके पहले घरों की साफ-सफाई की जाती। घर- आंगन को गोबर, छूई [3] एवं गेरु [4] से लीपा व पोता जाता है। वे आज भी लक्ष्मी पूजा या राम वनवास की कथा से परिचित नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि दिवाली समेत ज्यादातर त्यौहार कृषि एवं उसकी परंपरा पर आधारित है। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने मनगढ़ंत कहानियां रच कर इन त्योहारों को धर्म से जोड़ दिया।

 

देश में दशहरा त्यौहार खरीफ फसल की बुआई के बाद बारिश खत्म होने पर मनाया जाता है। बस्तर में होने वाले दशहरा कार्यक्रम में राम- रावण का नामो-निशान नहीं है। उसी प्रकार मैसूर का प्रसिद्ध दशहरा, हिमाचल प्रदेश का दशहरा और दक्षिण भारत के दशहरे में लोग राम- रावण को नहीं जानते। इस समय आदिवासी लोग जो दशहरा मनाते हैं वह भी राम- रावण के बारे में अनभिज्ञ हैं।

 

यानी दशहरे का त्यौहार कृषि आधारित है ना कि धर्म पर आधारित, यह बात हमें समझनी होगी। बाद में धर्म के ठेकेदारों ने उस पर अपना प्रभाव दिखाने के लिए काल्पनिक कहानियों को जोड़ दिया और वह उससे अपने धर्म को जोड़ने लगे। इसी प्रकार दशहरे पर हिंदू, बौद्ध, जैन धर्म के लोग अपना कब्जा जताने की कोशिश करने लगे। और इसे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे।

 

भारत में पोंगल त्यौहार के पीछे भी यही कहानी है। यह त्यौहार रबी फसल की बुआई के बाद मनाया जाता है जिसे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। इस त्यौहार को मनाने का दूसरा कारण यह भी है कि इस समय सूरज उत्तर से दक्षिण की ओर जाता है।

 

यूरोप में क्रिसमस ईसा मसीह के जन्म के पहले से मनाया जाता था। उसी प्रकार अरब में ईद का त्यौहार मुहम्मद साहब के आने के पहले से मनाया जाता है। भारत में रबी फसल की खुशी में होली मनाई जाती है, लेकिन धार्मिक लोग इन प्राकृतिक त्यौहारों को अपना बताने लगे अपने धर्म प्रचार का हिस्सा बनाने लगे। इन्हीं त्यौहारों के बहाने तत्कालीन विरोधियों को भी निशाना बनाया गया। जैसे रावण, होलिका, राजा बली आदि- आदि।

 

जानिये अन्य राज्यों में कैसे मनाई जाती है दिवाली?

 

गुजरात

 

गुजरात में नमक व्यावसाय अर्थव्यवस्था के केन्द्र में है, इसलिए वहां के कृषक नमक को साक्षात धन का प्रतीक मानकर इस दिन नमक खरीदने व बेचने को शुभ मानते हैं।

 

राजस्थान

 

राजस्थान में दिवाली के दिन घर में एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु तमाम मिठाइयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती है। यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाए तो इसे वर्षभर के लिए शुभ व साक्षात धन का आगमन माना जाता है।

 

उत्तरांचल

 

उत्तरांचल के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दिवाली मनाते हैं।

 

हिमाचल

 

हिमाचल प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियां इस दिन यक्ष पूजा करती हैं।

 

मध्यप्रदेश

 

मध्यप्रदेश के बघेलखंड क्षेत्र में इस दिन खासतौर पर लाई- बताशे के साथ ग्‍वालन की पूजा की जाती थी। इसी प्रकार मालवा क्षेत्र के मुस्लिम दिवाली को जश्न-ए-चिराग के रूप में मनाते हैं। इस अंचल में मुस्लिम समाज द्वारा दिवाली पर्व मनाए जाने की परम्परा आज भी कायम है।

 

ओडिशा

 

ओडिशा निवासी सुधांशु हरपाल कहते हैं कि ओडिशा के ग्रामीण अंचल में दिवाली जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता ना ही इस प्रकार के किसी त्योहार मनाने की परंपरा है, लेकिन यहां पर एक फसल आधारित त्यौहार इसी समय या इसके आसपास मनाया जाता है। जिसका नाम “नुआखाई” है। इस त्यौहार का दिन धान की फसल के पकने के हिसाब से अलग-अलग होता है।

 

आइए अब जानने की कोशिश करते हैं कि इस भारत के इंडिजिनियस आदि त्यौहार को या मूलनिवासी त्यौहार को मनाने के लिए विभिन्न धर्म क्या दावे करते हैं?

 

हिंदू धर्म

 

इस धर्म में यह दावा किया जाता है कि राम 14 वर्ष के वनवास के पश्चात इसी दिन अयोध्या लौटे थे। इसीलिए अयोध्यावासी दीपों से उनका स्वागत किए। गौरतलब है कि वाल्मीकि रामायण एवं तुलसी रचित रामचरित मानस में ऐसे किसी त्यौहार का जिक्र नहीं मिलता है। उसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि समुद्र मंथन पश्चात इस दिन लक्ष्मी और कुबेर प्रकट हुए थे। इसीलिए यह त्यौहार मनाया जाता है। इसी प्रकार कृष्ण से जुड़ी भी कई कथाएं इस त्यौहार की पीछे जोड़ी जाती हैं। वेदों और पुराणों में इस तरह के त्यौहार का कोई जिक्र नहीं है।

 

बौद्ध धर्म

 

बौद्ध धर्म के अनुयाई द्वारा भी दावा किया जाता है कि यह बौद्धों का त्यौहार है। भगवान बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के 17 वर्ष बाद इसी दिन अपने निवास कपिल वस्तु गए थे। इसलिए लोगों ने उनका दीपों से स्वागत किया था। दावा यह भी किया जाता है कि इसी दिन चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने 84,000 स्तूपों में दीए प्रज्वलित करने के आदेश दिए थे। एक बौद्ध विद्वान का दावा है कि जिस प्रकार वैदिकों [5] ने उनके याने बौद्धों के बौद्ध विहार को मंदिर एवं बुध मूर्तियों को देवी। देवताओं में बदल दिया। इसी प्रकार इस बौद्ध त्यौहार को काल्पनिक कहानियों के सहारे हिंदू त्यौहार में बदल दिया गया। जबकि दीए और दीए जलाने की परंपरा बौद्धों ने शुरू की है। ‘’अप्पो दीपो भव’’ यानी अपना दीपक स्वयं बनो की बात सबसे पहले भगवान बुद्ध के द्वारा कही गई थी।

 

जैन धर्म

 

जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा दावा किया जाता है कि जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने दिवाली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया था। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर निर्वाण के साथ जो अंतर ज्योति सदा के लिए बुझ गई। उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्ज्योति के प्रतीक में दीए जलाए गए और दिवाली की परंपरा शुरू हुई।

 

सिख धर्म

 

सिख धर्म के अनुयायियों का दावा है कि इसी दिन 1618 को सिखों के छठवें गुरु हर गोविंद सिंह जी को बादशाह जहांगीर की कैद से मुक्ति मिली थी। इस खुशी में सिख समुदाय प्रकाश पर्व के रूप में दिवाली को मनाते हैं।

 

मुस्लिम धर्म

 

जैसा कि पूर्व में बताया गया है। मध्य प्रदेश के मालवा के मुस्लिम इस त्यौहार को जश्न-ए-चिराग के रूप में मनाते हैं। ऐसी जानकारी मिलती है कि मुगल बादशाह भी अपने महलों में इस त्यौहार को शान से मनाते थे और किलों में रोशनी की जाती थी।

 

अब प्रश्‍न ये उठता है कि ऐसा क्या कारण है कि दिवाली त्यौहार पर लगभग सभी स्थानीय धर्मों द्वारा अपना दावा पेश किया जाता है?

 

इसका कारण यह है कि दिवाली या दीपावली एक आदी या भारत के मूलनिवासियों का कृषि आधारित त्यौहार है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए मानव जीवन किसी त्यौहार के बिना अकल्पनीय है। यह खरीफ फसल पकने की खुशी का त्यौहार है। इसे बड़े पैमाने में तब से मनाया जाता रहा होगा जब से इन धर्मों का अस्तित्व नहीं था। हम यह कह सकते हैं कि दिवाली जैसे त्यौहार का इतिहास उतना ही पुराना है जितना पुराना कृषि का इतिहास है। भारत में पनपे किसी भी धर्म के लिए बहुत कठिन रहा होगा कि वे इन परंपरागत त्यौहारों को नजरंदाज कर दे। इसलिए सभी धर्मों ने दिवाली पर अपना-अपना दावा पेश किया। वैसे भी धर्म प्रचार के लिए ये परंपरागत त्यौहार बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आसान जरिया होते हैं।

 

 

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[1] एक खास प्रकार के हरे रंग के कीट पतंगे जो धान की बालियों के आकार के होते हैं।

 

[2] धान से बनी हुई कलात्मक झालर जिसे स्थानीय भाषा में चिरई चुगनी भी कहा जाता है।

 

[3] एक प्रकार की मिट्टी जो सफेद रंग की होती है।

 

[4] एक प्रकार की मिट्टी जो लाल रंग की होती है।

 

[5] हिन्दू या ब्राम्हण


 

संजीव खुदशाह

©संजीव खुदशाह

परिचय– रायपुर, छत्तीसगढ़


नोट :- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ‘ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन’ इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.


 

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