आशकारा | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

©बिजल जगड
मेरा देश बदल रहा है,
संविधान वहीं का वहीं धरा का धरा पड़ा है,
कोई करे आंदोलन कोई सम्मेलन;
निगाहें सरकार पे डाल के खड़ा है।
पानी हो चला है खून मेरा,
संविधान वहीं का वहीं धरा का धरा पड़ा है,
फलक से ऊंचा देश हमारा;
रोजगारी का मसला वहीं पे खड़ा है।
धर्म एक फिर भी लड़ते,
संविधान वहीं का वहीं धरा का धरा पड़ा है,
प्यारे से बढ़कर अस्त्र नहीं;
वहदत की चिंगारी पत्थर लिए खड़ा है।
बेबसी का आलम- घुटन;
संविधान वहीं का वहीं धरा का धरा पड़ा है,
खेतों को जो हरियाली देता आज
देश का किसान वहीं अथक खड़ा है।
अभी बहोत काम है बाकी,
संविधान वहीं का वहीं धरा का धरा पड़ा है,
कई श्रद्धा, राजियां की सुनवाई अदालत बिना आशकारा लिए खड़ा है।
*आशकारा – clear visibility
*वहदत – एकता