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युगपुरुष डॉ. भीमराव अंबेडकर…

डॉ. कान्ति लाल यादव

©डॉ. कान्ति लाल यादव

परिचय- असिस्टेंट प्रोफेसर, उदयपुर,

 

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर एक महान् व्यक्तित्व के धनी और बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रभावशाली महामानव विश्वरत्न, युग दृष्टा, शिक्षाविद्, कुशन राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, पत्रकार, अर्थशास्त्री ,महान् विधिवेत्ता थे। दलितों के मसीहा। संविधान निर्माता एवं सामाजिक आंदोलन के महान युगपुरुष थे। डॉक्टर अंबेडकर अपने माता पिता की 14 वीं संतान थे। गरीब परिवार में जन्मे भीमराव का बचपन बड़े संघर्षों से व्यतीत हुआ। बचपन में बड़ा कड़वा अनुभव रहा।

 

उनके पिता भीमराव की शिक्षा के प्रति तन मन से समर्पित थे। अंबेडकर स्वयं परिश्रमी थे। रात में 2 बजे तक जागते रहते थे। उन्होंने विदेशों से उच्च अध्ययन किया। उन्होंने विदेशों में उच्च शिक्षा हेतु बड़ौदा के महाराजा सयाजी गायकवाड के द्वारा छात्रवृत्ति की मदद से ग्रहण की। उस समय इतनी बड़ी डिग्रियां प्राप्त की तब किसी अन्य भारतीय के पास नहीं थी।

 

बावजूद उनके साथ भेदभाव किया जाता था।वे सोचते थे जब मेरे साथ इस प्रकार का घिनोना व्यवहार किया जाता है तो मेरे अछूत भाइयों का क्या हाल होता होगा! वे चाहते तो बड़े अहोदे की नौकरी कर सकते थे किंतु उन्होंने सोचा कि यदि मैं नौकरी करूंगा तो मेरे लाखों अछूत भाइयों का क्या होगा? उन्होंने अपना पूरा जीवन अछूतोंद्धार में लगा दिया।

 

उन्होंने अपने जीवन में चार महत्वपूर्ण कार्य किए। जिसमें प्रथम दलित उद्धार,दूसरा नारी उद्धार, तीसरा भारत का संविधान सृजन और चौथा बौद्ध धर्म को ग्रहण कर धर्म क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। वे अपने जीवन में तीन शख्सियत से बहुत प्रभावित रहे। प्रथम संत कबीरदास जी , जिन्होंने तर्कवाद और सत्य की ताकत से उन्हें प्रभावित किया तो गौतम बुध के समता स्वतंत्रता और भाईचारा, ज्योतिबा फुले से सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना की तथा दलितोंद्धा की नींव रखी थी। उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फुले की बनाए चित्र में बेहतरीन रंग भरने का काम किया था।उन्होंने दलितों को संवैधानिक अधिकार दिला कर मानवता की रक्षा का कार्य किया था।

 

डॉक्टर अंबेडकर ने वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। हिंदू धर्म की सबसे बड़ी कुप्रथा के रूप में जाति प्रथा को बताया तथा उसे अंतरजाति विवाह से समाप्त किए जाने का सुझाव दिया।उन्होंने अस्पृश्यता को हिंदू धर्म के पतन का मुख्य कारण बताते हुए कहा था कि वर्ण व्यवस्था ही अस्पृश्यता की मूल समस्या है। उनका मानना था कि भारत में यदि सामाजिक समता,सामाजिक न्याय को स्थापित करना है तो दलितों, पिछड़ों और अस्पृश्यों को उच्च वर्गों के समान ही सामाजिक ,राजनीतिक और आर्थिक बराबरी का दर्जा दिया जाए तभी यह संभव होगा।

 

वे बाहरी आजादी के बजाय आंतरिक आजादी पर जोर देते थे। उनका कहना था- ” उस कौम को आजादी मानने का क्या हक है जो अपने देश की करोड़ों लोगों को गुलाम बनाकर रखे हुए।” बाबा साहब ने भारत की दलित, वंचित, शोषित, पीड़ित जनता के लिए सामाजिक न्याय हेतु अंतिम सांस तक समर्पित रहे। वे मानवतावादी सिपाही थे। सामाजिक आजादी का ख्वाब ज्योतिबा फुले ने देखा था उसे धरातल पर लाने काम डॉ. अंबेडकर ने किया।

 

ज्योतिबा फुले ने जो सामाजिक एकरुपता के चित्र बनाएं उनमें बाबा साहब ने सजाने का काम किया। उसे संवैधानिक रूप देकर मजबूत समाज के साथ उत्तम लोकतंत्र के निर्माण की महती भूमिका अदा की। हजारों वर्षों से बिलखती मानवता को हंसाने का कार्य किया। डॉ.अंबेडकर सामाजिक आंदोलन के एक एसे पैरोकार हैं जो मानवता के लिए समता, स्वतंत्रता, न्याय तथा भाईचारे को जिंदा रखने हेतु पूरा जीवन समर्पित कर दिया।

 

डॉक्टर अंबेडकर हिंदू धर्म में वर्षों से फैली बुराइयों को बदलना चाहते थे 1934 में नासिक के सेवा गांव मैं मनुस्मृति को जलाया और घोषणा की कि “मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ हूं यह मेरे वश में नहीं था, किंतु हिंदू धर्म में मरूंगा नहीं यह मेरे वश में है।”

 

13अक्टुबर 1935 में उन्होंने महाराष्ट्र के नासिक जिले के येवला नामक स्थान पर एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए कहा था -“हमने समाज में समानता का दर्जा प्राप्त करने के लिए हर प्रकार के प्रयास किए, सत्याग्रह किए परन्तु सब बेकार। समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि-“हिंदू सोसाइटी उस बहु मंजिली मीनार की तरह है जिसमें प्रवेश करने के लिए न कोई सीढ़ी है ना दरवाजा। जो जिस मंजिल में पैदा हो जाता है उसे उसी मंजिल में मरना होता है।”

 

उन्होंने 20 वर्ष तक हिंदू धर्म में परिवर्तन के लिए इंतजार किया किंतु रत्ती भर भी बदलाव ना पाकर उन्होंने लगभग 25 वर्षों तक सभी धर्मों को गहराई से अध्ययन कर जो सबसे उत्तम, वैज्ञानिक एवं तार्किक लगा उसे उन्होंने अपनाया। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में 5 लाख लोगों के समर्थन में हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध ग्रहण को ग्रहण कर लिया। उन्होंने भारत में जन्मे बौद्ध धर्म को ही ग्रहण किया। वे राष्ट्रवादी थे। कहते थे-” धर्म मनुष्य के लिए है ना कि मनुष्य धर्म के लिए।”

 

वे पत्रकार थे। उन्होंने जन-जन के बीच वैचारिक क्रांति के लिए अखबार प्रकाशित किए थे- मुकनायक 31 जनवरी 1920 ,बहिष्कृत भारत 3 अप्रैल 1927, समता 29 जून 1928, जनता 24 नवंबर 1930 और प्रबुद्ध भारत- 4 फरवरी 1956 को। इन पांच अखबारों के माध्यम से देश में शोषित,पिछड़े और अछूतों को एक मजबूत आवाज तथा वैचारिक शक्ति प्रदान की।

 

1928 में डॉक्टर अंबेडकर ने साइमन कमीशन के सामने खड़े होकर विरोध किया था और कहा था कि अपना (दलित वर्ग) प्रतिनिधि चुनने का हमें अधिकार होना चाहिए। जिसमें किसी प्रकार की कोई शर्त ना हो, हमारे हितों की रक्षा में दूसरे क्यों जज बनना चाहते हैं? जिसमें कुछ लोग वर्ण व्यवस्था के हिमायती थे।

 

वे राजा, महाराजाओं के सत्ता पर आसीन कराना चाहते थे।साथ में अपना विरोध की पुस्तक के माध्यम से ‘फेडरेशन वर्सेस फ्रीडम’ लिखकर किया था। बाद में डॉक्टर अंबेडकर साहब ने गोलमेज सम्मेलन में दहाड़ के कहा था- “हम ऐसी सरकार चाहते हैं जिसमें सभी की भागीदारी समान हो, आप कोई भी विधान बनाएं,वह बहुमत की स्वीकृति के बिना लागू नहीं हो सकता।” इस प्रकार डॉ.अम्बेडकर ने लन्दन की धरती पर भारत की स्वतंत्रता की मांग समानता के सिद्धांत पर की।

 

अंग्रेजों ने दलित, मुस्लिमों की अलग निर्वाचन की मांग को मान लिया तब बीच में गांधीजी कूद पड़े और दलितों को अलग निर्वाचन के विरोध में आमरण अनशन शुरू कर दिया तब डॉक्टर अंबेडकर को गांधी जी की प्राण रक्षा हेतु मजबूरी में पूना पैक्ट द्वारा कांग्रेस में समझौता कर अपनी अलग मांग को त्याग कर संयुक्त निर्वाचन और आरक्षण की शर्त को मानना पड़ा।

 

आज भारतीय संविधान से दलितों के बाद कोई लाभान्वित हुआ है तो वह इस देश की महिलाएं हैं।यह बात अलग है कि देश की महिलाएं अंबेडकर साहब को कितना मानती है क्योंकि हिंदू कोड बिल सदन में पास ना होने पर उन्होंने त्यागपत्र तक दे दिया था।

 

अस्वस्थ होने के बावजूद उन्होंने 2 वर्ष 11 माह 18 दिन के कठोर परिश्रम से संविधान निर्माण किया था। दुनिया के अनेक देशों के संविधानों का गहन अध्ययन कर भारत को एक सुंदर गुलदस्ते की भांति सजा कर बेहतरीन संविधान दिया था। उन्होंने कहा था -“हमारा संविधान लचीला है और कठोर है।देश को शांति और युद्ध के समय जोड़े रखने में सक्षम है।वास्तव में आज एक अरब 40 करोड़ जनता को बांधे हुए है।

 

वे संविधान सभा के अध्यक्ष थे। प्रारूप समिति के सदस्यों के बिना सहयोग के पूरा संविधान लिखा। इस बात को प्रारूप समिति के सदस्य टी.टी. कृष्णमाचारी स्वयं ने स्वीकार किया था। आज संविधान की अमृत वर्षा की बहती धारा के समान है। आज विश्व के सबसे बड़े संविधान और लोकतंत्र को लेकर दुनिया भारत देश की कायल है। बाबा साहब ने संविधान में सभी धर्मों को ध्यान में रखते हुए लिखा था। जो उनकी सूझबूझ और बुद्धिमत्ता की परिचायक है।

 

उन्होंने कहा था -“संविधान कितना भी अच्छा हो यदि उसे मानने वाले लोग सही नहीं है तो संविधान गलत साबित होगा। यदि संविधान सही नहीं हो और उसे मानने वाले लोग अच्छे हैं तो संविधान अच्छा साबित होगा।”

 

दलित, शोषित, वंचितों के लिए डॉक्टर अंबेडकर ने संविधान में देश के लिए सुंदर भविष्य के बारे में सोचा और उनके हितार्थ बहुत कुछ किया किंतु आज भी सरकारी क्या कर रही है? निजीकरण उच्च शिक्षा में अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।न्याय प्रणाली महंगी होती जा रही है। देश में गरीबी व बेरोजगारी बढ़ती जा रही है दलित अत्याचार का ग्राफ दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। भाई भतीजावाद, क्षेत्रवाद, मुनाफाखोर का विस्तार हो रहा है।

 

आजादी के 72 साल बाद भी दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारा जा रहा है तो किसी को मूछ रखने पर मारा जा रहा है। मटकी से पानी पीने पर जान से मार दिया जा रहा है। लोकतंत्र झुलस रहा है और हमारा संविधान खतरे में नजर आ रहा है।

 

बाबा साहब एक सच्चे मानवतावादी तथा मानवाधिकार के रक्षक थे। कहते थे “मैं प्रथमत: भारतीय हूं और अंततः भारतीय हूं।” वे कहते थे -“अन्याय से लड़ते हुए आपकी मौत हो जाती है ,तो आप आपकी आने वाली पीढ़ीयां उसका बदला जरूर लेंगी अगर अन्याय सहते हुए आपकी मौत हो जाती है, तो आपकी आने वाली पीढ़ीयां गुलाम बनी रहेगी”

“जो लोग इतिहास को भूल जाते हैं वो लोग कभी भी इतिहास न बना सकते हैं।”

 

उनके विचार प्रासंगिक और आज भी बेजोड़ हैं। वे कहते थे जीवन लंबा होने के बजाय महान होना चाहिए।” उन्होंने अपने अछूत, पिछड़े, दलित भाइयों को उन्नति हेतु मूल मंत्र दिया था-” शिक्षित बनो! संगठित रहो !और संघर्ष करो!” “शिक्षा शेरनी के दूध के समान है जो इसे पिएगा वह दहाड़ेगा “किंतु आज उनके अनुयाई उच्च शिक्षा में उस स्तर तक नहीं पहुंच पाए हैं जहां वे चाहते थे । संगठित रहो किंतु आज अनेक संगठनों में बंट गए हैं। संघर्ष करो- पर ये अपने आप में संघर्ष करने में लगे हुए हैं।

 

बाबा साहब कहते थे-“21वीं सदी तुम्हारी होगी, इसे कोई रोक नहीं सकता। इस पर विश्वास करो। याद रहे, अन्याय का विरोध और अधिकार की प्राप्ति ही जीवन है। अपने अनुयायियों को कहते थे -“तुम शेर की तरह बनो। बली हमेशा भेड़-बकरी की दी जाती है।” उन्होंने अपने जीवन में कई आंदोलन किए और उसमें वे सफल भी हुए।

 

डॉ. अंबेडकर कुशाग्र बुद्धि के थे।व 9 भाषाओं के ज्ञाता तथा 64 विषयों के मास्टर थे। 32 डिग्री को उन्होंने प्राप्त किया था। उन्होंने लगभग 25 वर्षों तक सभी धर्मों का बड़ी गहराई से अध्ययन किया था। उन्होंने 8 वर्ष की पढ़ाई को लंदन ऑफ इकोनॉमिक्स (डॉक्टर ऑफ साइंस) को मात्र 2 वर्ष 3 माह में पूर्ण कर ली थी। आज दुनिया में बाबा साहब की सबसे ज्यादा प्रतिमाएं हैं। वे एक अच्छे चित्रकार थे।

 

सर्वप्रथम बाबा साहब ने ही बुद्ध के खुले नेत्र की पेंटिंग बनाई थी। डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर जल को लेकर विश्व के प्रथम आंदोलनकारी थे। डी.एस.सी. जैसी उपाधि प्राप्त करने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उनके पास निजी पुस्तकालय था जो दुनिया का सबसे बड़ा निजी पुस्तकालय था। जिसमें 50 हजार से भी ज्यादा पुस्तके थी। उन्होंने महत्वपूर्ण ठारह पुस्तके लिखी थी जैसे- ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’, ‘द प्रॉब्लम ऑफ रुपी’, ‘बुद्धा एंड हिस धम्मा’, आदि प्रमुख थी।वे अद्भुत एकाग्रता के धनी थे। भारत सरकार ने बाबा साहब का 21 खंडों में संपूर्ण वांग्मय प्रकाशित किए हैं।

 

वे बहुत ही संवेदनशील तथा करुणाशील व्यक्तित्व वाले इंसान थे। महान देशभक्त, नैतिक मूल्यों पर आधारित जीवन शैली को जीने वाले, स्पष्टवादी वक्ता ,सत्य के प्रेमी तथा महान कर्मयोगी थे।

 

उन्होंने देश में जल नीति को लागू कर देश की नदियों को जोड़कर बड़ी-बड़ी परियोजना बनाई हीराकुंड बांध, दामोदर घाटी परियोजना, भाखड़ा नांगल बांध, सोन नदी परियोजना, ऑडिशन नदी परियोजना, इस तरह बड़े-बड़े कार्य किए। वित्त आयोग का गठन, श्रमिक कल्याण कोष भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना मतदान का एकाधिकार आदि प्रमुख कार्य है।

 

बाबा साहब अपने अनुयायियों से कहते थे की -” मेरी जय-जय बात करने से बेहतर है कि मेरे अधूरे कार्यों को पूरा करें।” आज अंबेडकर साहब को पढ़ने से ज्यादा समझने और समझने से ज्यादा उनके पद चिह्नों पर चलने की जरूरत है। वे सदा ब्राह्मणों से नहीं ब्राह्मणवाद से नफरत करते थे।

उनका अंतिम संदेश था कि -” मैं जो भी कुछ कर पाया हूं वो जीवन की अनेक मुसीबतों और विरोधियों की टक्कर लेकर कर पाया हूं। यदि मेरा कारवां को आगे बढ़ा सके तो अच्छी बात है नहीं तो उसे वही रख देना पीछे मत होने देना। आज जरूरत है दलितों पिछड़ों और आदिवासी तथा अल्पसंख्यकों को अपना व्यवसाय करने की।

 

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों में जगह बनाने की। फिल्मों और धारावाहिक में अपना स्थान बनाने की। अपने संगठन के माध्यम से बैंकों और विश्वविद्यालय खोलने की।आज जरूरत है उनके सपनों का भारत बनाने की।

 

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