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धम्मपदं गाथा- समय मुट्ठी से फिसल रहा है; संसार में कुछ भी अपना नहीं, सब यहीं रह जाना है, फिर क्रोध, मोह, लोभ, घृणा, अहंकार क्यों | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

डॉ. एम एल परिहार

©डॉ. एम एल परिहार

परिचय- जयपुर, राजस्थान.


 

Dhammapadam Gatha- Time is slipping away from grasp; Nothing in the world is ours, everything has to remain here, then why anger, fascination, greed, hatred, arrogance

 

पुत्ता मत्थि धनम्मत्थि, इति बालो विहञ्जति।

अत्ता हि अत्तनो नत्थि, कुतो पुत्ता कुतो धनं।।

 

पुत्र मेरा है, धन मेरा है- ऐसा तो मिथ्या सोचकर मूढ़, नासमझ, अज्ञानी मनुष्य चिंता करता है, परेशान रहता है। जब मनुष्य स्वयं अपना नहीं, शरीर ही अपना नहीं है, तो पुत्र और धन उसके कहां तक होंगे?

 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। व्यवहारिक जीवन में घर-परिवार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सबका ध्यान रखना पड़ता है। हर कदम पर परिजनों, मित्रों के सहयोग व अन्य से सहयोग और मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती है।धन की कमी से जीवन दुखदायी हो जाता है। इसलिए ये सब जरूरत के अनुरूप जरूरी है, जीवन को संतुलित करना जरूरी है, सभी से प्रेम, सदव्यवहार भी जरूरी है।

लेकिन तथागत जिसके लिए बार-बार सजग करते हैं कि संसार से अति-मोह नहीं हो, चिपकाव नहीं हो। व्यक्ति या वस्तु की ओर तृष्णा नहीं हो। ऐसी स्थिति नहीं हो कि कोई कहे कि अमुक वस्तु या व्यक्ति के बिना वह जी नहीं सकता।

 

मनुष्य को ‘दायी’ की तरह रहना चाहिए, जो दूसरे के बच्चे का एक मां की तरह पालन-पोषण करती है। वह बच्चे से लाड़-प्यार करती है लेकिन मोह नहीं करती है। इसलिए जब वह उनका परिवार छोड़ती है तो बच्चे को पाने के लिए दुखी नहीं होती है।

 

प्रज्ञावान व्यक्ति भी इसी तरह जागृत रहता है। वह उन चीजों और व्यक्तियों के प्रति अपने होने की दावेदारी नहीं जताता है जो वास्तव में उसकी है ही नहीं।

 

मूढ़ नासमझ व्यक्ति कहता है, संतान मेरी है। धन-दौलत मेरी है। महंगी गाड़ी, बंगले मेरे हैं। रूप-रंग, पद-प्रतिष्ठा, सत्ता, शासन सब मेरे हैं। फिर उसे अहंकार आ जाता है, अकड़कर कहता है मैं अमीर, मेरे पुत्र-पुत्रियां बड़े अफसर, वे भी अमीर। बाहर की नश्वर चीजों को इकट्ठा कर अमीर होने का घमंड करता है। लेकिन अंदर से चित्त के खजाने से तो कंगाल ही मिलता है।

 

लेकिन व्यक्ति स्वयं अपना तक नहीं है, तो संतान, धन, पद-प्रतिष्ठा अपने कैसे होंगे? सब यहीं पड़ा रह जाता है। दुनिया से विदा होने पर सारा ऐशो आराम, घर-परिवार यहीं रह जाते है। लेकिन मूढ़ संसार की उन्हीं उलझनों में उलझा रहता है जिनमें दुख और अशांति छिपी होती है। अंतत: मृत्यु आती है।

 

भगवान बुद्ध सच्चे सुख और भवचक्र से मुक्ति के लिए सद्धम्म को पाने, निर्वाण को पाने की देशना करते हैं। साथ में बुद्ध यह भी चेताते हैं कि इस यात्रा में यदि सच्चा संगी-साथी नहीं मिले तो अकेले ही आगे बढना, लेकिन मूढ़ का साथ मत करना। मूढ़ स्वयं तो डूबता ही है साथ वाले को भी ले डूबता है।

 

    सबका मंगल हो… सभी प्राणी सुखी हो

 

 

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