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धम्मपद- जो दूसरों की गायें गिनने वाले ग्वाले के समान है वह श्रमण, भिक्खु, धाम्मिक कहलाने का अधिकारी नहीं | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

डॉ. एम एल परिहार

©डॉ. एम. एल. परिहार

परिचय- जयपुर, राजस्थान.


 

बहुं पि चे संहितं भासमानो, न तक्करो होति नरो पमत्तो।।

गोपो’ व गावो गणयं परेस, न भागवा सामञ्जस्स होति।।

 

ले ही कोई बहुत ही संहिता, धर्मग्रंथ कंठस्थ कर ले, कथावाचन कर ले, लेकिन प्रमाद-वश उसका आचरण न करे, तो वह दूसरों की गायें गिनने वाले ग्वाले के समान है. वह श्रमणत्व का भागी नहीं होता. वह श्रमण, धाम्मिक कहलाने के योग्य नहीं होता।

 

भले ही धर्मग्रंथ, त्रिपिटिक कंठस्थ कर लें, संगायन कर ले, पठन कर ले, ज्ञानी-विद्वान हो जाए, लेकिन ग्रंथ के विचार उसके जीवन में नहीं उतरे, वह ज्ञान उसका जीवन न बने तो उसकी विद्वता व्यर्थ है। सिर्फ जानने से कुछ नहीं होता, मानना और आचारण में उतारना जरूरी है, उन आदर्शों को जीना जरूरी है।

 

धाम्मि ग्रंथों, किताबों की वाणी, उपदेशों को याद करना, पाठ करना और भाषण करना बहुत आवश्यक है लेकिन उनके विचारों के अनुसार व्यवहारिक जीवन में उतारना, अपनाना अत्यंत आवश्यक है। मन से विकारों का मैल तभी साफ होगा जब सदगुणों का व्यवहार किया जाएगा।

 

महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कोई कितनी बड़ी बात कहता है महत्वपूर्ण तो यह है कि वह कितना करता है। कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए।

 

ग्वाला पूरे गांव के पशुपालकों की गायों को इकट्ठा करके जंगल ले जाता है, दिनभर चराता है, गिनती रखता है फिर शाम को लौट आता है, कहता है पांच सौ गायें चराकर लौटता हूं. लेकिन एक भी गाय उसकी नहीं होती है, वह एक गाय का भी मालिक नहीं होता. तंदुरूस्त, खूब दूध देने वाली गायें, लेकिन सब दूसरों की। फिर थोड़े समय बाद उसमें अहंकार भी आ जाता है कि वह पूरे गांव की गायें चराता है, पांच-दस गायें चराने वाले ग्वाले की उसके आगे क्या बिसात।

 

इसी प्रकार जीवन की सुख शांति के उपदेशों, शिक्षाओं, वचनों से भरे ग्रंथों, संहिताओं, वाणी संग्रहों का कोई पाठ करता रहे, वाचन करता रहे, उन पर भाषण करता रहे, लेकिन प्रमाद में पड़कर लापरवाही में वह उनके अनुसार आचरण नहीं करें, तो वह दूसरों की गायें गिनने वाले ग्वाले की तरह, श्रमणत्व का भागी नहीं है, श्रमण कहलाने का अधिकारी नहीं है।

 

श्रमण का अर्थ होता है जिसने श्रम करके ज्ञान को अर्जित किया है, उधार नहीं लिया, चुराया नहीं है, बासी नहीं है, जिसने अपने अनुभव से जीवन के सत्य को जाना है। श्रम से जिसने अर्जित किया है वह श्रमण कहलाता है। तथागत कहते हैं, जो दूसरों की गाये गिनने वाले ग्वाले के समान है, वह श्रमण, भिक्षु कहलाने का अधिकारी नहीं होता।

 

कोई किताबों के पन्नों को पढ़े, याद रखे, रटे, पठन करे, भाषण करे और यदि वह व्यक्ति किताबों में कहे वचनों, शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारता है तो वही श्रमण है, वही भिक्षु है, वही धाम्मिक है। जो धम्म को आचारण में उतारे, वही श्रमण है, वही भिक्खु है।

 

       सबका मंगल हो… सभी प्राणी सुखी हो

 

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