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Guru Ravidas : संत शिरोमणि गुरु रविदास जी | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

राजेश कुमार बौद्ध

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय- संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश


 

Guru Ravidas : जीते जी ख्याति बहुत विरले लोगों को मिलती है। सतगुरु रविदास उन विरले लोगों में से एक थे, जिनको ख्याति जीते जी मिली थी। जिस संत की प्रशंसा कबीर ने की और जिस संत को मीराबाई ने अपना गुरु माना, वह संत किसी परिचय का मोहताज नहीं है। कबीर ने समस्त संतों में गुरु रविदास जी को विशिष्ट माना है।

 

साधुन में रैदास संत हैं, सुपच ऋषि सो मानियां।

हिन्दु तुरुक दुई दीन बने हैं, कछु नहीं पहिचानियां।।

 

संत कबीर ने गुरु रविदास को ” साधुन में रैदास संत ” कहकर उनके महत्व को स्वीकार किया है।कबीर खुद बड़े संत थे और ऐसे बड़े संत यदि किसी संत को ” संतों का संत ” कहे तो इसका मूल्य यह है कि उसका मूल्य बहुत बड़ा है। मीराबाई की कुछेक रचनाओं में गुरु के रूप में गुरु रविदास जी का उल्लेख है – 

 

गुरु मिलया रविदास जी दीन्हीं ग्यान की गुटकी।।

 

जाहिर है कि सतगुरु रविदास मीराबाई के गुरु थे। मीराबाई ऐसे वैसे को गुरु नहीं कह देंगी।सतगुरु रविदास में ऐसा कुछ था, जिससे प्रभावित हो कर मीरा ने सन्त रविदास जी को गुरु माना। ‘ ओशो रजनीश ‘ ने लिखा है कि रैदास का अगर एक भी वचन नहीं बचता और सिर्फ मीरा का यह कथन बचता, गुरु मिलया रैदास जी, तो काफी था।

 

धन्ना भगत किसानी करते थे। लेकिन नामदेव छीपा, कबीर जुलाहा, सैन नाई गुरु रविदास जी की प्रेरणा से वे सन्त हो गए। यह बात उन्होंने खुद ही लिखी है। जाहिर है कि सतगुरु रविदास प्रेरक बन चुके थे और कई लोगों ने उनकी राह अपनाई।(Guru Ravidas)

 

गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मन लीणा।

आढ दाम को छीपड़ो होइओ लाखीणा।।

बुनना तनना तिआगि कै प्रीति चरन कबीरा।

नीच कुला जोलाहरा भइओ गुनीय गहीरा।।

रविदास ढुवंता ढोर नीत तिन तिआगी माइआ।

परगट होइआ साध – संगि हरिदरसन पाइआ।।

सैनु नाई बुत कारिआ ओहु घरि – घरि सुनिआ।

हिरदे बसिआ पारब्रह्म भगता महिं गनिआ।।

इह विधि सुनिकै जाटरो उठि भगति लागा।

मिले प्रतखि गुसइयां धन्ना बड़ भागा।।

 

गोविंद के साथ नामदेव का मन सदैव जुड़ा रहता था।आधी कौड़ी का छींबा लखपति बन गए। बुनना तनना छोड़कर कबीर ने सिरि चरणों से लगन लगा ली। नीच कुल के जुलाहा गुणों का समंदर हो गए। गुरु रविदास जो नित्य मरे हुए पशु ढोते थे,वे मोह त्याग और साधु संगति में रहकर सन्त शिरोमणि हो गए। सैन नाई भी सन्तो में गिने जाने लगे। धन्ना भगत कहते हैं कि ये सब बातें सुनकर मैं भी भक्ति की ओर उन्मुख हो गया और सतगुरु के दर्शन कर धन्य हो गया। इस प्रकार धन्ना भगत ने बड़े ही आदर के साथ और प्रेरक के रूप में संत रविदास का नाम लिया है। दादूदयाल का नाम कबीर और गुरु रविदास जैसे संतों की श्रेणी में गण्य है। दादू के विचारों पर कबीर का अत्यधिक प्रभाव है।जो था सन्त कबीर का, सोई वर वरिहूँ। लेकिन दादू ने भी बड़े आदर के साथ गुरु रविदास जी का उल्लेख किया है।

 

कहां लीन शुक्रदेव था, कहा पीपा रैदास।

दादू साचा क्यों छिपे, सकल लोक परकास॥

 

अर्थात शुकदेव मुनि कब भक्ति द्वारा भगवान में लीन हुए थे, पीपा और रैदास का शरीर अब कहाँ है ? किंतु वे सच्चे भक्त थे। अतः वे छिप कैसे सकते थे? उनका यश तो सकल लोक में प्रसिद्ध हो रहा है। दादूदयाल के अग्रणी शिष्य रज्जब जो जन्म से मुस्लिम थे,उन्होंने रैदास के बारे में कहा कि भक्ति का जो प्रकाश रैदास को मिला, वह रैदास के व्यक्तित्व में ही समा गया था। सिखों के गुरुग्रंथ साहब में रैदास के 40 शब्द तो है ही, खुद सिख गुरुओं ने भी बड़े आदर के साथ सतगुरु रविदास जी का उल्लेख किया है। सिखों के चौथे गुरु रामदास ने कहा –

 

साधू सरणि परै तो उबरै खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु चंडालु चंडईआ।

नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु अउजाति रविदासु चमिआरु चमईआ ॥ (आदि ग्रंथ, अंग-835/6)

 

अर्थात साधुओं की शरण में जो भी जाता है,उसे मुक्ति मिल जाती है, चाहे वह क्षत्रिय हो, ब्राह्मण हो, शूद्र हो या वैश्य हो या कथित अछूत से अछूत ही क्यों न हो, मिसाल के तौर पर नामदेव, जयदेव, कबीर, त्रिलोचन और कथित रविदास चमार। यहाँ से जयदेव की जाति खुलती है, जिन्हें गलती से ब्राह्मण मान लिया गया है। पाँचवें गुरु अर्जुन देव ने भी रैदास की महिमा का बखान किया है।(Guru Ravidas)

 

भलो कबीरु दासु दासन को ऊतमु सैनु जनु नाई।

ऊच ते ऊच नामदेउ समदरसी रविदास ठाकुर बणि आई।। ( आदि ग्रंथ, अंग – 1207/1)

 

अर्थात दासों के दास कबीर भले हैं और सैन भगत उत्तम हैं। भगत नामदेव महान हैं और समदर्शी रविदास तो एकाकार ही हैं। एक ब्राह्मण संत हरिराम व्यास ने तो रैदास की प्रशंसा दिल खोलकर की है।

 

व्यास बड़ाई छाड़ि कै, हरिचरणा चित जोरि।

एक भक्त रैदास पर, वारूं ब्राह्मण कोरि ।।

 

जन्म से कथित ब्राह्मण हरिराम व्यास तो एक भक्त रैदास पर करोड़ों ब्राह्मण न्योछावर करने को तैयार बैठे हैं। भारत के अनेक संतों ने गुरु रविदास का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया है। संत रैदास का उल्लेख एकनाथ ने किया है। हरिदास, तुकाराम, सेवादास और रूपदास जी ने भी उल्लेख किया है (संत रविदास, इंद्रराज सिंह, पृ.65-66)। मीराबाई के बाद महिला संतों में से एक दयाबाई ने भी संत रैदास का उल्लेख बड़े सम्मान के साथ किया है।

 

भेंटो जब रविदास कूं लीन्हो भुजा पसार,

हरि लीला रीझै नहीं अचरज कहों अपार।

 

हिंदी साहित्य सबसे पुराना इतिहास गार्सां द तासी कृत ” इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानी ” है। इसका प्रथम संस्करण दो भागों में 1839 तथा 1847 ई. में प्रकाशित हुआ था। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने इसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है। इस हिंदी अनुवाद में गुरु रविदास के बारे में 5 पन्ने हैं। लेकिन हिंदी में लिखा हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास शिवसिंह सेंगर कृत ” शिवसिंह सरोज ” है, जिसका प्रकाशन 1877 ई. में हुआ था। इसमें कुल मिलाकर 1003 कवि हैं। अफसोस कि इस इतिहास – ग्रंथ में गुरु रविदास का नाम गायब है।

 

हिंदी साहित्य के एक विदेशी इतिहासकार ने गुरु रविदास के बारे में लिखा, किंतु हिंदी साहित्य के एक देशी इतिहासकार ने उन्हें छोड़ दिया। अंग्रेजी में लिखा हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास जार्ज ग्रियर्सन कृत “वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान” है, जिसका प्रकाशन 1889 में हुआ था। डॉ. ग्रियर्सन ने “शिवसिंह सरोज ” को इतिहास – लेखन का आधार बनाया। परिणामत: इस ग्रंथ से भी गुरु रविदास का नाम गायब हो गया, जबकि इसमें 951 कवियों का इतिहास दर्ज है। आगे के इतिहास – ग्रंथों में भी गुरु रविदास के बारे में कम ही लिखा गया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ” हिंदी साहित्य का इतिहास ” (1929 ई.) में गुरु रविदास पर सिर्फ एक पन्ना लिखा है। जबकि उन्होंने तुलसीदास के बारे में 16 पन्ने लिख डाले हैं।

 

डॉ. रामकुमार वर्मा भी ” हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ” (1938 ई.) में रैदास पर सिर्फ दो पन्ना लिखकर रुक गए हैं। डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त ने अपने इतिहास – ग्रंथ को वैज्ञानिक होने का दावा किया है। उनका इतिहास – ग्रंथ ” हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास ” 1965 में प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ में भी गुरु रविदास पर सिर्फ एक पन्ना है। जबकि मैथिलीशरण गुप्त पर 6 पन्ने हैं। एक ओर हिंदी साहित्य के इतिहास – ग्रंथों में गुरु रविदास पर कम लिखा गया है, दूसरी ओर इतिहासकारों ने अधिक ऊर्जा उनकी जाति – विमर्श पर ही लगा दिया है कि वे ब्राह्मण थे या चमार थे। एक तो गुरु रविदास ब्राह्मण नहीं थे, फिर भी एक पन्ना में से आधा पन्ना इसी पर वे खर्च कर डाले हैं।

 

परिणामतः पुराने इतिहास – ग्रंथों में उनका साहित्यिक मूल्य नहीं आंका जा सका है। लेकिन संतोष की बात हैं कि दलित साहित्य के आने से संत रविदास पर अनेक शोध कार्य हो रहे हैं।

 

रामचंद्र शुक्ल ने इनकी कविताओं को सांप्रदायिक माना और लिखा कि सिद्धों और नाथों की कविताएँ शुद्ध साहित्य नहीं है। अर्थात हिंदी साहित्य के इतिहास में इन्हें जगह नहीं मिलनी चाहिए। जबकि हिंदी साहित्य की आरंभिक इमारत इन्हीं शूद्रों की कविताओं पर खड़ी है।

 

सिद्ध और नाथ कवि मूल रूप से उत्तरवर्ती बुद्धिस्ट थे। शायद इसीलिए शुक्ल जी को लगा कि इनका साहित्य सांप्रदायिक है। जबकि सूरदास और तुलसीदास भी किसी न किसी संप्रदाय से जुड़े थे। मगर शुक्ल जी की नजर में वे हिंदी के महाकवि हो ।

 

सोच लीजिए कि जिस संत साहित्य में कबीर और रैदास से लेकर घासीदास तक बड़े-बड़े कवि हुए,उसी संत साहित्य को शुक्ल जी ने लिखा है कि इनकी रचनाएँ साहित्यिक नहीं हैं, और भाषा ऊटपटाँग है। (Guru Ravidas)

 

आधुनिक काल की जिन हिंदी पत्रिकाओं को सिर माथे चढ़ाकर हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा गया, उनमें सरस्वती से लेकर मर्यादा तक शुमार है। ओमप्रकाश दीपक ने लिखा है कि ” कल्पना ” के शतांक पर मैंने उन साढ़े पाँच सौ से अधिक भारतीय लेखकों की सूची देखी,जिनकी पुस्तक की समीक्षाएँ ” कल्पना ” के सौ अंकों में छपी है। इनमें डेढ़ सौ से अधिक नाम ऐसे हैं, जिनके आगे लगी हुई शर्मा, पाठक, पांडे, अवस्थी, चतुर्वेदी आदि उपाधियाँ उनके ब्राह्मण होने की घोषणा करती हैं।

 

” मर्यादा” भी अपवाद नहीं थी। मर्यादा के नवंबर,1912 अंक में कुल मिलाकर 15 रचनाएँ छपी हैं, जिनमें मिश्र, अवस्थी, जोशी, गोस्वामी, चौबे, शुक्ल, त्रिवेदी और मालवीय आदि उपाधिधारक रचनाकारों की संख्या 13 है। खैर, ” सरस्वती ” की बात निराली थी। इस पत्रिका ने तो जयशंकर प्रसाद को भी छापने से परहेज किया।

 

फिलहाल अनेक कवि और लेखक साहित्य की दुनिया में सक्रिय हैं। कविता, कहानी, उपन्यास और साहित्य की अनेक विधाएँ धुआँधार लिखी जा रही हैं। मगर हिंदी साहित्य का इतिहास – लेखन नहीं के बराबर हो रहा है। पहले जो इतिहास- लेखन में सक्रिय रहे उन्होंने जान- बूझ कर हाशिए के लेखन को उपेक्षित किए। यदि आज भी हाशिए का समाज सजग नहीं हुआ तो ये तमाम लेखक – कवि मिट जाएंगे।

 

बात 1640 ई. की है। भारत में तब शाहजहाँ का शासन था। उस समय में भी सतगुरु रविदास और सन्त कबीर के ज्ञान की बड़ी शोहरत थी। ज्ञान -पिपासु दारा शिकोह सतगुरु और सन्त कबीर के ज्ञान से प्रभावित थे। शाहजहाँ के समय में फकीर उल्ला बड़े चित्रकार थे। दारा शिकोह ने फकीर उल्ला से आग्रह किया कि आप सतगुरु और सन्त कबीर की संयुक्त पेंटिंग बनाइए। आखिरकार फकीर उल्ला ने 1640 ई. में सतगुरु रविदास और सन्त कबीर की संयुक्त पेंटिंग बनाई। यह पेंटिंग फिलहाल नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली में मौजूद है। पेंटिंग का खूबसूरत किनारा है। धूसर रंग का सर्वाधिक प्रयोग है। पेंटिंग में कबीर की झोंपड़ी के बाहर गुरु रविदास पधारे हैं। कबीर बुनाई का कार्य कर रहे हैं और गुरु रविदास जी चटाई पर बैठे हैं। पूरी चित्रकारी में शांति का अखंड साम्राज्य है। राजकीय पक्षों को ज्यादा दिखाने वाले तत्कालीन चित्रों के बीच यह पेंटिंग बताती है कि लोक में सन्त कबीर और सन्त रविदास जी का कितना प्रभाव था। दारा शिकोह ने फकीर उल्ला से संत रविदास और संत कबीर की जो संयुक्त पेंटिंग बनवाई है, वह मुगल कालीन चित्रकला का मास्टरपीस है। नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली में 19 सदी के आरंभ की एक और पेंटिंग है। जिसमें कबीर के साथ नामदेव, पीपा जी और सतगुरु रविदास जी हैं। पेंटिंग में सन्त कबीर अपनी कुटी के पास कपड़ा बुन रहे हैं और उनके आसपास नामदेव, पीपा जी और सतगुरु रविदास बैठे हैं। तीनों संत का ध्यान कबीर की ओर है और चारों संत सिर पर पगड़ी या टोपी धारण किए हुए हैं। 18-19 वीं सदी में पेंटिंग की एक कंपनी शैली भी प्रचलित हुई। यह इंडो – यूरोपियन शैली है। इस शैली में भी सन्त कबीर और सन्त रविदास की एक संयुक्त पेंटिंग मिलती है। यह पेंटिंग सेंट्रल म्यूजियम,जयपुर में रखी है जो 1825 में बनी थी और फकीर उल्ला की पेंटिंग से मेल खाती है।

 

जरूरत इस बात की है कि हिंदी साहित्य का मुकम्मल इतिहास – लेखन हो ताकि अच्छे-अच्छे साहित्यकारों को बगैर जाति, संप्रदाय और प्रांत पर विचार किए इतिहास में समेटा जा सके।


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