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मन चंगा तो कठौती में गंगा | newsforum

संत रविदास का जन्म 1433 विक्रमी महा पूर्णिमा को रविवार को बनारस में हुआ था। {14 सौ 33 की माघ सुदी पंदराम। दुखियों के कल्याण हित प्रगटै श्री रविदास मध्यकाल में जन्मे संत रविदास।।}

वे निम्न समझी जाने वाली जाति चर्मकार में पैदा हुए थे। उन्होंने उच्च कर्म से ईश्वराधना को संभव बताया था। नाभादास ने संत रविदास को रामानंद जी के शिष्य एवं कबीर को गुरु भाई बताया था। कबीर ने उन्हें -“संतनी में संत रविदास” कहा था।

कबीर के उपदेश वाणी उग्र है। किंतु संत रविदास की ज्ञानवाणी नम्र भाव में प्रस्फुटित हुई है। उनमें डांट- फटकार की भाषा नहीं है। उन्होंने विरोध भी बहुत शालीनता के साथ किया है। कबीर के शिष्य धर्मदास ने कबीर के उपदेशों का प्रचार प्रसार व्यापक रूप से किया किंतु संत रविदास के एसे किसी शिष्य ने रविदास जी के उपदेशों का प्रचार -प्रसार बड़े पैमाने पर नहीं किया। संत रविदास के 54 राजा एवं प्रमुख भक्तिमति कवयित्री मीरा और रानी झाली जैसे शिष्य तो बने किंतु उनके उपदेशों का बड़े पैमाने पर फैलाने में असमर्थ रहे।

सिख धर्म के पांचवें गुरु अर्जुन देव ने गुरु ग्रंथ साहब में संत रविदास के 41 पद जरूर सम्मिलित किए गए। जिसे सिख धर्म के अनुयायियों तक ही सीमित रहा। कबीर के अनुयायियों ने कबीर पंथ के रूप में भी प्रचार- प्रसार किया किंतु संत रविदास की परंपरा में कोई पंथ के रूप में तथा गद्दी के रूप में अनुयायियों का अभाव की वजह से भी उनकी लोकप्रियता में गिरावट रही। उनकी मृत्यु के बाद जातिवाद में भी बढ़ावा हुआ। जिससे एक महान संत की ज्ञानवाणी एवं उपदेशों को नजरअंदाज किया जाता रहा।

संत रविदास देश के अनेक राजाओं के गुरु थे और मीरा के भी गुरु माने जाते हैं। गुरु के रूप में मीरा का यह दोहा प्रचलित है-

“मेरो मन लाग्यो गुरु सों।

अब न रहूंगी अटकी।

गुरु मिल्या रैदास जी,

 मोहि दीनी ज्ञान की गुटकी।।”

गुरु रविदास को संत शिरोमणि भी कहा जाता है गुरु रामानंद के 12 शिष्यों में संत रविदास सबसे ज्यादा पढ़े लिखे थे। उनके पदों में आत्म समर्पण है। सहज शैली है। करुण वेदना है। प्रतिरोध का मीठा, सहज एवं सरल स्वर है। अपने मधुर उपदेशों से भाईचारा और एकता का पाठ पढ़ाया था इस धरती पर भगवान ने सभी को इंसान बनाया है तो फिर आपस में भेद किस बात का है? संत गुरु रविदास जी ने 14वीं सदी में मानवता का पाठ पढ़ाया था।

गुरु रविदास जी ने मन की शुद्धता और श्रम की महत्ता को प्रमुख माना था। स्वस्थ मन में ही खुशियां जन्म ले सकती है। संत रविदास का चिंतन के साथ मानवीय प्रेम रूपी धर्म ने ही बाद के दलित समाज सुधार को में एक नई क्रांति, नवीन ऊर्जा का सूत्रपात किया था। जिसे हम ज्योतिबा फुले और डॉ. अंबेडकर साहब में देख सकते हैं। संत रविदास में समाज- जन में कर्तव्यनिष्ठा से, ईमानदारी से कर्मशील मनुष्य बनाने का सूत्र पिरोकर एक आदर्श समाज की रूपरेखा तैयार की थी। जिसे आज आत्मनिर्भर भारत हेतु अति आवश्यक प्रतीत होती है।

संत रविदास जी ने अपने पदों में स्पष्ट किया है कि जाति से बढ़कर कर्म को महत्त्व दिया है। उन्होंने यह संदेश दिया है कि इंसान की जाति प्रमुख न होकर इंसान में सद्गुणों से लदा हुआ मानव जीवन और ईमानदारी व मेहनत रूपी सत् कर्मों से ही मानव श्रेष्ठ बन सकता है। मध्यकाल के इस संत ने जाति व्यवस्था पर जो प्रहार किया था वह आज भी हमारे देश में राष्ट्रधर्म और विकास में बाधा बनी हुई है। दलित उत्पीड़न कम नहीं हुआ है। उन्होंने कहा था -“मानवता को खात है, जात -जात का रोग।” और उन्होंने यह भी कहा था -“जात- जात में जात है जो केलन के पात।

 रैदास न मानुष जुड़ सके,

 जो लो जात न जात।।”

संत रविदास सदा समानता के ही पक्षधर थे। वे कहते थे-“एकै माटी के सभ घड़े,सबका एकै सिरजनहारा।

रविदास व्यापे घट भीतरे, सबका एके गढे़ कुम्हारा।”

संत रविदास ने हमेशा मनुष्य के मन की आंतरिक शुद्धता पर बल दिया है ना कि बाहरी दिखावे पर। दिखावटी इंसान से न ईश्वर भक्ति संभव है। न बुरे कर्मों से मुक्ति। अत: उन्होंने सदा मनुष्य में काम, क्रोध, छल -कपट, लोभ, ईर्ष्या-द्वेष रुपी दिमक से बचकर ही मनुष्य अपने जीवन का कल्याण कर सकता है। ढोंगियों पर प्रहार करते हुए वे कहते हैं -“मन ना रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा”।

रविदासजी ने सच्चाई, ईमान, पवित्रता और कर्मशीलता का संदेश बार-बार अपनी साखियों से व अपने पदों से देते रहे। संत रविदास निर्गुणवादी ज्ञानाश्रयी शाखा के भक्त कवि थे। उनकी ज्ञान वाणी में मधुरता एवं विनम्रता से ओत-प्रोत ज्ञान की वर्षा थी। उन्होंने जीवन भर दलितों, पीड़ितों और वंचितों के नव जीवन में ज्ञान ज्योति से सदा आशा के दीप को जलाए रखा। उनका संपूर्ण जीवन यथार्थ की पहचान कर व्यापक ज्ञान में मानवतावादी एवं सर्वधर्म समभाव का विचार नित्य पावन अमृत के झरने की तरह बहता रहा।

कर्मकांड, पाखंड और धार्मिक झगड़ों का सदा विरोध किया तथा समानता एवं मानवता, सहजता, प्रेम करुणा सत्य एवं सादगी, सदाचार, जीव -दया एवं अहिंसा का पाठ जन-जन को पढ़ाते रहे। इसीलिए संत रविदास आज भी प्रासंगिक है। वर्तमान में हर इंसान धन के पीछे भाग रहा है जिसकी वजह से झूठ,छल-कपट,बल, बेईमानी,लोभ, महामाया की विश्व रूपी बेल फैल रही है और आज मनुष्य अपराध पर अपराध किए जा रहा है। उन्होंने कहा था -“धन संचय दु:ख देत है, धन त्यागे सुख होय।

रविदास सिख गुरु देव की, धन मति जोरे कोय।।”

उनकी साधना श्रम से सोने में बदलने की व बुराई रूपी जहर को अमृत में तब्दील करने की थी।

संत रविदास सदा स्वाधीनता के पक्ष हित अपने मत को रखने व मानने वाले संत थे। उन्होंने सर्वप्रथम ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया था- “रविदास मनुष्य के बसन को,

सुख के है दुई ठांव।

एक सुख है स्वराज माहि,

दुजा मरघट माहि ।।”

“पराधीनता पाप है,जानू लेहु रे मीत।

 रेदास दास पराधीन सो, कौन करे है प्रीत।।”

संत रविदास के समय दिल्ली पर मुगल शासक सिकंदर लोदी का शासन था। तो राजस्थान में राणा सांगा का। उस समय मुस्लिम नारी पर्दे में जकड़ी हुई थी तो दूसरी ओर हिन्दू नारी सती प्रथा का बोलबाला था। नारी भोग्या एवं नारी व्यापार का चलन जोरों पर था। तब उन्होंने कहा था-“नारी ज्ञान की खान है, नारी नर के समान है।

दोऊ धरणी पर प्रज्ञ हैं, कह रविदास सतनामा।।”

उनका कहना था कि सच्ची ईश्वर भक्ति से इंसान की मुक्ति संभव है। बाह्य आडंबर तीर्थाटन और मानसिक विकारों को दूर कर तथा ईमानदारी की मेहनत से सच्ची ईश्वर भक्ति की जा सकती है उनके राम अलग थे वे भगवान और भक्ति के संदर्भ में कहते थे – राम पारसमणी है जीव लोहा है। बिना राम के स्पर्श से दुविधा समाप्त नहीं होती-” परचे राम रमै जे कोई पारस परसे दुबिधा न होई ।”

“प्रभु जी तुम चंदन हम पानी”। भक्त गुरु रविदास ने कहा था यदि हमारा मन पवित्र है यदि हमारा मन पवित्र है तो गंगा स्नान का ढोंग नहीं करना चाहिए। उनका मन इतना पवित्र था कि उन्हें अपने पापों के लिए गंगा स्नान की जरूरत नहीं थी। वे अपनी कठौती में गंगा के रूप में दर्शन करते थे। इसीलिए यह कहावत सिद्ध हुई-” मन चंगा तो कठौती में गंगा।”

संत श्री शिरोमणि भक्त रविदास जी ने उस जमाने में मानव-मानव को एक समान बनाने एवं एक जैसा अधिकार, कर्तव्य और समान रूप से जीवन यापन हेतु हर संभव प्रयास किया। जहां किसी को ना कोई कष्ट हो न कोई गम हो। न कोई बड़ा हो न कोई छोटा हो। आँठों पहर खुशियों का पहरा हो।न कोई गरीब हो न कोई अमीर हो। न कोई गुलाम हो न किसी से भेद हो। न द्वेष हो सिर्फ खुशियां हो। समानता हो। प्रेम हो। भाईचारा हो। सभी जन एक समान हो। स्त्री- पुरुष व बच्चों बूढ़ों में न भेद हो। मानव मात्र एक समान हो। ऐसे राज्य की कल्पना की थी। जिसे उन्होंने “बेगमपुरा” का नाम दिया था। उन्होंने कहा था -“ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिले सबको अन्न। छोट-बड़ों सब सम बसे, रविदास रहे प्रसन्न।

यह कल्पना वर्तमान में आदर्श गांव एवं आदर्श शहर की स्थापना कर ही की जा सकती है। जिसमें मानव पहले मानवता को धारण करें तभी संभव हो पाएगा।

 

©डॉ. कान्ति लाल यादव, सहायक आचार्य, उदयपुर, राजस्थान 

परिचय : शिक्षा– एमए, नेट, पीएचडी, बीईडी, एलएलबी, डीएलएल, बीजेएमसी, भागीदारी– 9 अंतर्राष्ट्रीय एवं 30 राष्ट्रीय संगोष्ठी में पत्र वाचन, शोध लेखन -35 शोधलेख, आलेख, कविताएँ, कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, दो काव्य संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा 4 अन्य पुस्तकें प्रकाशनरत, सम्मान– 4 राष्ट्रीय एवं 8 अन्य सम्मान प्राप्त।


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