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एक नहीं होता अकेला l ऑनलाइन बुलेटिन

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली 

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

 

एक वोट। बस, सिर्फ एक वोट। यूपी की शासकीय बागडोर संभालने का दावा ठोंकनेवाले दो अधेड़ राजनेता, 48—वर्षीय अखिलेश यादव और चौवालीस साल के जयंत चौधरी, कल शाम (दस फरवरी 2022) बिजनौर में चुनावी सभा कर रहे थे। केवल ढाई सौ किलोमीटर दूर बिजनौर से मथुरा में अपने बूथ पर जयन्त पहुंच नहीं पाये।

कल्पना करें कहीं उनका प्रत्याशी दस मार्च की गणना के दिन मात्र एक वोट से हारा तो? ऐसा ही हश्र हुआ था धर्म स्थल नाथद्वारा (राजस्थान) में सीपी जोशी का जो आज विधानसभा के अध्यक्ष हैं। उनकी पत्नी वोट नहीं कर पायी थी। उस वर्ष 2008 में जोशी जी का कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनना सोनिया गांधी ने तय कर दिया था। मन मसोस कर जोशीजी रह गये थे। किसे गाली देते?

जयंत चौधरी लंदन में पढ़े हैं और जानते हैं कि 1923 में एडोल्फ हिटलर जर्मन नेशनल सोशलिस्ट पार्टी (नाजी) के अध्यक्ष पद हेतु मात्र एक वोट से चुने गये। अगर हिटलर राष्ट्र नियंत्रक न बनता तो इतने लाखों नरनारी और अरबों की संपत्ति द्वितीय युद्ध में नष्ट न होती। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना प्रधानमंत्री का पद कैसे खोया ? यह सर्वविदित है।

अटल को तमिलनाडु मुख्यमंत्री जयललिता के समर्थन वापसी के कारण अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। तब लोकसभा अध्यक्ष पूर्णो ए. संगमा ने ऐतिहासिक अन्याय किया। अपने कांग्रेसी रिश्तों को भुला नहीं पाये। उन्होंने उड़ीसा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गिरधर गोमांगो को लोकसभा में अटल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर वोट डालने की अनुमति दे दी। जबकि सत्यता यह थी कि उड़ीसा विधानसभा में भी गोमांग वोट डाल चुके थे।

मगर लोकसभा के वे सदस्य बने रहे। कानूनन छह माह तक रह सकते है। हालांकि सियासी नैतिकता का तकाजा था कि यह सरासर बेईमानी है कि राज्य का एक विधायक संसद में भी अलग से मताधिकार का प्रयोग करे। नतीजन एक व्यक्ति के कारण नये संसदीय निर्वाचन के लिये अरबों रुपये व्यय हुये।

हिन्दी राष्ट्रभाषा बनी अध्यक्ष के एक वोट के कारण। वर्ना गोरों की भाषा चलती रहती। अमेरिका में मिलता जुलता हादसा हुआ। नवस्वतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रभाषा जर्मन होती, मगर 1776 में एक सांसद ने अंग्रेजी के पक्ष में वोट दिया। अगर यह इकलौता वोट न पड़ता तो लाखों लोग जो अमेरिका में जाकर अंग्रेजी में पढ़ते हैं, उन्हें जर्मन सीखनी पड़ती।

भारत के तीनों महान पुरोधा पहले म्युनिसिपालिटी के नेता थे। आज की तरह पैराशूट से नहीं उतरे थे। जवाहरलाल नेहरु (इलाहाबाद, अब प्रयागराज), नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कोलकत्ता की नगर महापालिका के तथा सरदार वल्लभभाई झवेरदास पटेल अहमदाबाद के मुखिया थे। सरदार पटेल पहले दौर के मतदान में अहमदाबाद म्युनिसिलपार्टी के चुनाव में महज एक वोट से 1917 में हारे थे।

यूं तो जो भी प्रत्याशी मथुरा में ​जीतेगा, शायद कई वोटों से ही विजयी होगा। किन्तु यदि मान लीजिये, कहीं सिर्फ एक वोट से जीता या हारा तो राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी के पुरखों उनका पराजित प्रत्याशी अवश्य तोहफे पेश करेगा।

इस पूरे परिदृश्य का एक पहलू और भी है। चुनाव आयोग हर बार बड़े—बड़े महंगे पोस्टर छपवाता है कि अपना वोट अवश्य डाले। स्वयं प्रधानमंत्री श्रम करके वोट डालने अपने गांव या शहर जातें हैं। यह प्रेरणादायी होता है। मगर सरदार मनमोहन सिंह अपने मतदान केन्द्र गुवाहाटी में नहीं गये। वे दिल्ली में ही टिके रहे।

जानकारी करा दूं कि मनमोहन सिंह ने असम के मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया के गुवाहाटी का पता देकर फर्जी तौर पर राज्य सभा में प्रवेश किया था। तब नियम था कि राज्यसभा जाने के लिये प्रदेश का स्थायी निवासी होता अनिवार्य था। इसे बाद में सभी पार्टियों की सहमति से निरस्त कर दिया गया।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की पंक्ति थी : ”एकल चलो रहे।” इसे शायर ने दूसरे अंदाज में से लिखा था कि ”अकेले चले थे मंजिल की ओर, लोग आते गये कारवां बनता गया।”

यूं तो निजी उदाहरण ही श्रेष्ठतम माध्यम का शिक्षण होता है। अब अगर प्रधानमंत्री के पोते, आजीवन मुख्यमंत्री पद के प्रतीक्षार्थी रहे अजीत सिंह के पुत्र अपना एक वोट डालना टाल जाये? तो नेतृत्व का गुण कैसा होगा? जयंत जवाब दें।

 


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