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सुभाष से नेहरु को इतनी विरति क्यों ? l ऑनलाइन बुलेटिन

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली 

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

 


 देश के द्वितीय गैरभाजपायी तथा गणतंत्र के चौदहवें प्रधानमंत्री ने कल (23 मार्च 2022) इंडिया गेट के मंचस्थल से राष्ट्र से एक अहम वायदा किया हैं : ”आजादी के बाद अनेक महान लोगों के योगदान को मिटाने की कोशिश हुयी। स्वाधीनता संग्राम में लाखों—लाख देशवासियों की तपस्या शामिल थी। उनके इतिहास को सीमित करने की कोशिशें हुयी। पर आज आजादी के दशकों बाद उन गलतियों को डंके की चोट पर देश ठीक कर रहा है।”

 

यह मात्र चुनावी वादा कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि यह एक जनवादी संकल्प है जनता से, जिन्हें नेहरु—सोनिया के दशकों के राज में भारतीय इतिहास के अर्धसत्य से ही अवगत कराया जाता रहा। कल महानतम सशस्त्र बागी सुभाष बोस के साथ हुये जुल्मों का खुलासा नरेन्द्र मोदी कर सकते थे। नहीं किया। बात रह गयी, बह गयी। मोदी जी अपनी ही पत्रिका ”पांचजन्य” का क्रांति स्मृति विशेषांक पलट लेते, एक बार पढ़ लेते। उनके शासकीय कार्याधिकारी तो मौसमी है, आजादी के बाद भी वही गुलाम आईसीएस की ही मानसिकता से ओतप्रोत !

 

जगजाहिर है कि जब जवाहरलाल नेहरु 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर स्वतंत्र भारत का परचम फहरा रहे थे, तो उसके चार वर्ष पूर्व ही (29 दिसम्बर 1943) अण्डमान द्वीप की राजधानी पोर्टब्लेयर में बोस राष्ट्रीय तिरंगा लहरा चुके थे। इतिहास में भारतभूमि का यह प्रथम आजाद भूभाग था।

 

उसी कालखण्ड में जवाहरलाल नेहरु अलमोड़ा कारागार (दूसरी दफा कैद) से रिहा होकर (15 जनवरी 1946) समीपस्थ (बरास्ते नैनीताल) रानीखेत नगर में जनसभा को संबोधित कर रहे थे। वहां इस कांग्रेसी नेता के उद्गार थे : ”अगर मैं जेल के बाहर होता तो राइफल लेकर आजाद हिन्द फौज के सैनिकों का अंडमान द्वीप में मुकाबला करता।” यह उद्धहरण है सुने हुये उस भाषण के अंश का। काकोरी काण्ड के अभियुक्त रामकृष्ण खत्री की आत्मकथा ”शहीदों के साये में” (अनन्य प्रकाशन, नयी दिल्ली, स्वामी श्री अतुल महेश्वरी : 9811388579) तथा इसका ताजा पहला संस्करण (जनवरी 1968 : विश्वभारती प्रकाशन) में है। इसका पद्मश्री स्वाधीनता सेनानी स्व. बचनेश त्रिपाठी भी उल्लेख कर चुके हैं। खत्रीजी के पुत्र उदय (फोन नम्बर : 9415410718) लखनऊवासी हैं। नैनीताल—स्थित इतिहाकार प्रोफेसर शेखर पाठक के अनुसार कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पुरोधा तथा दो बार यूपी में विधायक रहे स्व. पंडित मदनमोहन उपाध्यायजी का परिवार रानीखेत में नेहरु के मेजबान होते थे।

 

अर्थात यह तो साबित हो ही जाता है कि त्रिपुरी (मार्च 1939) कांग्रेस सम्मेलन में सुभाष बाबू के साथ उपजे वैमनस्यभाव की कटुता दस वर्ष बाद भी नेहरु ने पाल रखी थी। नेहरु के आदर्श उदार भाव के इस तथ्य को जगजाहिर करने की दरकार है।

 

एक विकृति और। बड़ा बढ़—चढ़कर जिक्र होता है कि बैरिस्टर जवाहरलाल नेहरु ने काला चोंगा पहन कर लाल किले में आयोजित आजाद हिन्द फौज के मुकदमें में सुभाष बाबू के सैनिकों की पैरवी की थी। असल पैरवी तो बैरिस्टर भूलाभाई देसाई ने की थी। अन्य वकीलों, कैलाशनाथ काटजू, आसिफ अली के साथ नेहरु भी हाजिर हुये थे।

 

भूलाभाई देसाई का तर्क मजबूत था। आजाद हिन्द फौज के इन भारतीय सिपाहियों को भागते हुये स्वयं ब्रिटिश कमांडर ने जापानियों के सिपुर्द किया था। अर्थात ब्रिटिश राज के प्रति निष्ठाकर्म से वे सब कैदी निर्बाध रुप से मुक्त हो गये थे। तो चर्चिल की सरकार का क्या हक हे कि उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाये? फिर भी सबको सजाये मौत हो गयी थी। पर विशाल ब्रिटिश—भारतीय सेना (करीब ढाई लाख) में इन हजारों बागी युद्धबंदियों को फांसी देने से ब्रिटिश भारतीय सेना में व्यापक विद्रोह हो जाता। अत: ब्रिटिश कमांडर को आम माफी देने पर विवश होना पड़ा। तो यह श्रेय काला चोंगाधारी नेहरु को क्यों मिले? उस वक्त इन कैदियों की रिहायी हेतु जनभेरी जोर पर थी : ”सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज, इंकलाब जिंदाबाद।” एक हिन्दू, दूसरा सिख, तीसरा सुन्नी। यह अविभाजित संपूर्ण भारत का भूगोल था। मुस्लिम लीग के मियां मोहम्मद अली जिन्ना शर्म के मारे खामोश रहे थे। हालांकि ब्रिटिश राज के अवैतनिक झण्डाबरदार भारतद्रोही जिन्ना रहे थे।

 

अब मामला नरेन्द मोदी की पाली में है। उनका फर्ज हे कि आजाद हिन्द फौज की आलोचना तथा विरोध करने वाले नेहरु की कहानी को स्पष्ट रूप से देश को बतायी जाये। अभी भी नेहरु—इंदिरा के वंशज सुभाष बोस से बैर रखते हैं। उनका बस चलता तो इन्दिरा गांधी की मूर्ति जॉर्ज पंचम के रिक्त स्थान पर लगवा देते। जब भी वास्तविक इतिहास का ईमानदारी से लेखन होगा तो इस गुजराती प्रधानमंत्री से अपेक्षा है कि वे राष्ट्र को बतायेंगे कि सफेद क्या है? काला क्या है? राजनीति को सहज में बदरंग कदापि नहीं करेंगे।


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