परिंदा उड़ गया | ऑनलाइन बुलेटिन
©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़
परिचय- मुंबई, आईटी टीम लीडर
तपती ज़मीन पे, एक पिता, ख़ुद नन्गे पाँव चलता रहा।
न ठंड का खौफ़ न गर्मी की बेचैनी, मौसम बदलता रहा।
कटे हाथों से नींबू निचोङ कर माँ लाती रही,
कुछ इस तरह परवरिश कर लहू पिलाती रही।
पंख हुए जब, एक रोज़ वो परिंदा उड़ गया,
दौलत की नुमाइश के आगे, सब छोड़ गया।
यमराज के आगे मिन्नतें करती रही माँ बार-बार।
मर कर भी खुली आँखें, तकती रहीं दीवार।
तड़प कर पिता ने अपने परिंदे को फोन लगाया,
माँ की आख़री आस है, मेरा बच्चा अब तक नहीं आया।
छोटा बेटा जब आया तो पिता ने पूछा एक सवाल,
तू अकेला ही आया यहाँ, तो बड़े का क्या है हाल।
बोला पिताजी, भाई ने कहा तू जा अगली बार मैं जाऊँगा।
माँ को अग्नि तुम देना, पिता की अग्नि पे मैं आऊँगा।
सुन कर पिता ने कमरे में ख़ुद क़ैद कर लिया,
लिख कर एक दस्तावेज, गोली चली और मर गया।
लिखा उसने, दौलत ग़रीबों और नौकर को बाँट देना।
उड़ते परिंदों का भरोसा नहीं, तुम उन्हें छाँट देना।
हमारी परवरिश में भला क्या कमी रह गई।
पिता तो आज मरा, माँ तो पहले ही मर गयी।
पिता तो आज मरा, माँ तो पहले ही मर गयी।