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हाशिये पर अनुसूचित जाति | ऑनलाइन बुलेटिन

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय-   गोरखपुर, उत्तर प्रदेश


 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन सी आर बी) के निराशाजनक तथ्य से करते हैं। इस साल की शुरुआत में आई इसकी रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराध में उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है। इनमें बलात्कार, हत्या और जमीन से जुड़े विवाद शामिल हैं। इन अपराधों में 2014 से 2018 के दौरान 45/ फीसदी बढ़ोतरी हुई। इसके बाद गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र हैं। जिस समय का यह रिकॉर्ड हैं उस समय इन राज्यों में भाजपा की सरकारें थीं। ये वे राज्य हैं (कर्नाटक, राजस्थान और पश्चिम बंगाल समेत) जहां भाजपा को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में सबसे अधिक, 46पर जीत हासिल हुई थी।

 

ऐसा अपराध जिसमें पुलिस किसी भी व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकती हैं, वह संज्ञेय अपराध कहलाता है। वर्ष 2019 में उत्तर प्रदेश में संज्ञेय अपराधों के सबसे ज्यादा मामले दर्ज किए गए।

 

स्रोत:- एनसीआरबी रिपोर्ट-2019 के अनुसार-

 

उत्तर प्रदेश-6,28,574, महाराष्ट्र-5,09,433, तमिलनाडु- 4,55,094, केरल-4,53,083, गुजरात-4,31,066,मध्य प्रदेश-3,95,619, अनुसूचित जाति के खिलाफ अपराध में उत्तर प्रदेश टॉप पर- उत्तर प्रदेश- 36,467, विहार – 20,973, राजस्थान- 18,418, मध्यप्रदेश- 16,952, सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस विभाग में थानों की व्यवस्था है। रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2019 तक देश में कुल – 16,671 थाने स्वीकृत थे इनमें सबसे ज्यादा तमिलनाडु में थे।

 

स्रोत- Bureau of police Research and Development के अनुसार- तमिलनाडु-2,019, उत्तर प्रदेश-1,532, महाराष्ट्र-1,163, मध्य प्रदेश-1,117, विहार-1,074, कर्नाटक-1,048, इन्हीं वर्षों के दौरान मौलिक अधिकारों और संवैधानिक सिध्दांतों का निरंतर क्षरण भी देखने को मिला। मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया जो एससी-एसटी (प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज ) एक्ट 1979 को कमजोर करने वाला था,इसके बाद दलित संगठनों ने देशव्यापी बन्द का आयोजन किया। आमतौर पर यह बंद शांतिपूर्ण रहा, हालांकि कुछ जगहों पर ऊंची जाति के लोगों की तरफ से बंद का विरोध करने के कारण झड़प भी हुई।

 

पहली बार जाने-माने एससी नेता और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान को संसद में ऐसे मुद्दे पर बोलते देखा गया, संभव है कि वह सुनियोजित हो। तब केंद्र सरकार ने कानून के मूल प्रावधानों को यथावत रखने का फैसला किया, केंद्र सरकार की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना निर्णय वापस ले लिया। पासवान ने आशंका जताई थी कि इस फैसले से अनुसूचित जातियों में गलत संदेश जा रहा है और देश में विरोध बढ़ सकता है। दरअसल, कई ऐसे नीतिगत फैसले हुए जिनमें यस सी को यह आशंका होने लगी है कि उनके संवैधानिक अधिकारों पर कैंची चलाई जा रही हैं और धीरे-धीरे आरक्षण भी खत्म किया जा सकता है।

 

भाजपा और एनडीए में इसके सहयोगी दलों से जो यस सी प्रतिनिधि चुनकर आए हैं, उन्होंने हाथरस में हुई घटना पर या तो चुप्पी साधे रखना उचित समझा या बहुत कम प्रतिक्रिया दी।उनका यह व्यवहार प्रतिनिधित्व की राजनीति और उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति के बारे में कई सवाल खड़े करता है। महिला प्रतिनिधियों को ही लीजिए, मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की 11 महिला सांसदो और 38 महिला विधायकों में से गिनी-चुनी प्रतिनिधियों ने ही ‘ समाज के बुरे तत्व ‘की बात बड़ी हिचकिचाहट के साथ स्वीकार की।

 

एक ने तो यहां तक कह दिया कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल में संगठित अपराध कम हुआ है और किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए। हाथरस के भाजपा सांसद राजवीर सिंह दिलेर तो अलीगढ़ जेल पहुँच गए और खबरों के अनुसार अपराधियों और जेलर के साथ बैठकर चाय पी। उत्तर प्रदेश के ज्यादातर यस सी भाजपा सांसद और विधायकों ने सिर्फ इतना कहा कि इस घटना ने पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाया है। इसके लिए भी उन्होंने बसपा और सपा के कार्यकाल में नियुक्त पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराया और अपने मुख्यमंत्री पर पूरा भरोसा जताया।

दरअसल, उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य दो भागों में बंटा हुआ है। पहला पहचान अथवा जुड़ाव की राजनीति और दुसरा, रोटी कपड़ा और मकान की राजनीति, सपा,बसपा,कांग्रेस और भाजपा सब इसी हिसाब से बंटी हुई हैं। कांग्रेस और भाजपा ने अपने नजरिये को अपने वैचारिक झुकाव के अनुसार थोड़ा बदला है। चुनाव प्रचार और घोषणा पत्र से पार्टियों के नजरिये का पता चलता है, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद कांग्रेस अल्पसंख्यको के लिए आरक्षण की बात करने लगी है। यह बदलाव बसपा में भी दिखता है, चुनाव प्रचार में पार्टी नेता मायावती का नारा था,” जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी”।

 

ऊंची जाति के मतदाताओं के गरीब वर्ग के लिए आरक्षण बसपा के प्रमुख राजनीतिक लक्ष्यों में नहीं रह गया। यह एक तरह से जुड़ाव की राजनीति और रोटी, कपड़ा और मकान की राजनीति दोनों का मिला जुला रूप हैं, इसलिए राजपूत और ब्राह्मण उम्मीदवारों को ज्यादा सीटें दी गईं। भाजपा ‘हमारे सपनों का उत्तर प्रदेश ‘ नारे के जरिए ओबीसी को संदेश दे रही थी, तो दूसरी तरफ अनुसूचित जातियों को जोड़ने का प्रयास कर रहीं थीं। इसी तरह बिहार में जदयू ने एक तरफ ऊंची जाति के साथ गठबंधन किया तो दुसरी तरफ दलितों, पसमांदा मुस्लिम और महादलितो के साथ भी हाथ मिलाया।

 

आज भी समाज की क्या स्थिति है यह किसी से छुपा नहीं है।उच्च कोटि के हिन्दू मंदिरों में शूद्रों का प्रवेश वर्जित हैं, JEE एडवांस 2015 मे आल इंडिया रैंक में कीर्तिमान स्थापित करने वाले प्रतापगढ़ के होनहार लड़के राजू और बृजेश से ईष्या करने वाले उच्चजाति के लोगों द्धारा उनके घरों पर ईंट-पत्थर फेंक कर दहशत फैलाकर आगे पढ़ने से रोका जाता है। अनुसूचित जाति के दूल्हे को सुरक्षा की दृष्टि से हेलमेट लगाना पड़ता हो और बारात को पीटा जाता है, PCS से चयनित दलित महिला का उत्पीड़न, दलित को मजदूरी के पैसे मांगने पर उसे थ्रेसर में डालकर हत्या कर दी जाती हो, डॉ. अम्बेडकर के नाम की रिंगटोन लगाने पर किसी बच्चे की हत्या कर दी जाती हो, प्यार करने की सजा उस समाज की महिलाओं को नंगा करके चौराहे पर सामूहिक रूप से बलात्कार किया जाता हो, अपने खेतों पर से कब्जा हटाने को कहने पर दबंगों द्धारा ट्रैक्टर से कुचल कर हत्या कर दी जाती हो, एक चमार जाति के प्रोफेसर को सवर्ण कुर्सी पर बैठने के लिए प्रधानमंत्री से गुहार लगानी पड़ती हो, जाति के आधार पर शोषण करना दबंगो के बाएं हाथ का खेल है। आजकल आये दिन पत्र-पत्रिकाओं, समाचार -पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्धारा ऐसे तमाम तरह के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। जहां भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14, 15, 16, 17 एवं 18 समानता के अधिकार की व्याख्या करते हैं, तो वहीं अनुच्छेद- 19, 20, 21 एवं 22 में स्वतंत्रता के अधिकार की व्यापक व्याख्या की गयी हैं।

 

संविधान का मसौदा पेश करते हुए बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने एक अंतर्विरोध की बात कही थी, ” राजनीतिक परिदृश्य में तो भेदभाव विरोधी सिध्दान्त की बात होती हैं, लेकिन सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में भेदभाव और असमानता बनी रहती हैं। “सामाजिक और आर्थिक अधिकार दिलाए कर हर वर्ग के लिए सम्मान और न्याय सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी है। अनटचेबिलिटी ऑफेंसेस एक्ट 1955, प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट 1974, एससी-एसटी (प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज) एक्ट 1989,जैसे कानूनों के जरिए कई तरह के अपराधों को जातिगत हिंसा के दायरे में लाया गया है, खासकर यौन हिंसा को, फिर भी डॉ अम्बेडकर जी ने भारत के संविधान का प्रस्ताव पेश करते हुए राजनितिक, सामाजिक और आर्थिक असमानता को लेकर जो चिंताएं जाहिर की थी, वे आज भी बरकरार है।

 

यदि हम ईमानदारी से सोचें तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में आज भी वास्तविक रूप से कोई सामाजिक परिवर्तन हुआ ही नहीं है, जातिवादी सोच और हिंसा का जो सैलाबी ताण्डव हो रहा है, पूरे देश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध और इसे रोकने के लिए जिस प्रकार की लापरवाही और उदासीनता बरती जा रही हैं। शासन-प्रशासन द्धारा वह इंगित करता है।

 

इतना ही नहीं, कहने को अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं वंचितों के हितों की सुरक्षा के लिए अनेक कानून बनने के बावजूद अत्यंत महंगी न्याय व्यवस्था तथा शिक्षा के अभाव के कारण न्याय तो इन तक अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की पहुँच से दूर हैं,और जो पहुँच भी गये हैं उन्हें प्रायः न्याय नहीं मिल पाता। अर्थात इन वंचितों को शासन, प्रशासन, और न्यायपालिका का कहीं से भी अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा है। साथ ही साथ जो उम्मीद बची-खुची है वह भ्रष्टाचार का राक्षस निगल रहा हैं।

 


नोट :- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ‘online bulletin dot in’ इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.


 

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