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चिकित्सा पेशेवरों द्वारा किए जाने वाले टू-फिंगर टेस्ट पर तत्काल लगाया जाए प्रतिबंध : मद्रास हाईकोर्ट ने राज्य को दिया निर्देश | ऑनलाइन बुलेटिन

केस का शीर्षक- राजीवगांधी बनाम राज्य का प्रतिनिधित्व पुलिस निरीक्षक द्वारा

चेन्नई | [कोर्ट बुलेटिन] | सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी टू-फिंगर टेस्ट का उपयोग यौन अपराधों से जुड़े मामलों में किया जा रहा है, विशेष रूप से नाबालिग पीड़ितों के मामले में, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि यह टेस्ट बलात्कार के पीड़िताओं की निजता, शारीरिक और मानसिक अखंडता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है। मद्रास हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि चिकित्सा पेशेवरों द्वारा यौन अपराधों की पीड़िताओं पर किए जाने वाले टू-फिंगर टेस्ट की प्रथा पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए। जस्टिस आर. सुब्रमण्यम और जस्टि एन. सतीश कुमार की पीठ ने यह निर्देश जारी किया है।

 

अदालत एक आरोपी द्वारा दायर अपील का निपटारा कर रही थी, जिसे यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 5(एल) रिड विद 6(1) और भारतीय दंड संहिता की धारा 363 के तहत दोषी ठहराया गया था।

 

सुनवाई के दौरान, अपीलकर्ता के वकील और अतिरिक्त लोक अभियोजक ने प्रस्तुत किया कि टू-फिंगर टेस्ट को असंवैधानिक माना गया है और कई राज्य सरकारों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है। पीठ ने कहा कि लिलु उर्फ राजेश व एक अन्य बनाम हरियाणा राज्य एआईआर 2013 एससी 1784: (2013) 14 एससीसी 643 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि टू-फिंगर टेस्ट और इसकी व्याख्या बलात्कार पीड़ितों के निजता, शारीरिक और मानसिक अखंडता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करती है। इसलिए भले ही रिपोर्ट सकारात्मक हो, वास्तव में सहमति के अनुमान को जन्म नहीं दिया जा सकता है।

 

पीठ ने यह भी नोट किया कि गुजरात हाईकोर्ट ने गुजरात राज्य बनाम रमेशचंद्र रामभाई पांचाल, 2020 एससीसी ऑनलाइन गुजरात 114 के मामले में दिए गए फैसले में यह माना था कि टू-फिंगर टेस्ट, यौन उत्पीड़न के संदर्भ में इस्तेमाल किए जाने वाला सबसे अवैज्ञानिक तरीका है और इसकी कोई फोरेंसिक वैल्यू नहीं है।

 

पीठ ने कहा कि, ”उपरोक्त न्यायिक घोषणाओं के मद्देनजर, हमें कोई संदेह नहीं है कि टू-फिंगर टेस्ट को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इसलिए, हम राज्य सरकार को निर्देश जारी करते हैं कि चिकित्सा पेशेवरों द्वारा यौन अपराधों की पीड़िताओं पर किए जाने वाले टू-फिंगर टेस्ट की प्रथा पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाए।”

 

पृष्ठभूमि अदालत सीआरपीसी की धारा 374(2) के तहत दायर एक अपील पर विचार कर रही थी। जिसमें पॉक्सो अधिनियम के तहत दोषसिद्धि और सजा के आदेश को चुनौती दी गई है।

 

आरोपी, राजीवगांधी को पॉक्सो अधिनियम की धारा 5(एल) रिड विद 6(1) के तहत किए गए अपराधों के लिए आजीवन कारावास(जो जीवन काल के अंत तक रहेगी) व 1,00,000 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी। आईपीसी की धारा 363 के तहत किए गए अपराध के लिए उसे 7 साल के कठोर कारावास व 20,000 रुपये जुर्माने की सजा मिली थी।

 

अभियोजन पक्ष का मामला यह है कि पेरम्बूर में एक सिलाई की दुकान चलाने वाले आरोपी ने 16 साल की नाबालिग लड़की/पीड़िता से दोस्ती कर ली। पीड़िता उसके पास सिलाई सीखने जाती थी। 5 दिसंबर 2020 को आरोपी पीड़िता के घर के पास आया और उसे मिलने के लिए बहकाया। पीड़ित लड़की कुछ पुराने कपड़े सिलने के बहाने घर से निकली। जब वह नहीं लौटी तो उसके पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, जिसने बाद में लड़की को ढूंढ निकाला।

 

पीड़िता को अस्पताल ले जाया गया जहां पता चला कि आरोपी ने पीड़ित लड़की के साथ यौन संबंध बनाए है। पुलिस ने चश्मदीदों के बयान दर्ज कर आरोपी को गिरफ्तार कर लिया। आरोपी का बयान भी दर्ज किया गया। बच्ची को मेडिकल जांच के लिए ले जाने वाले कांस्टेबल और उसकी जांच करने वाले डॉक्टर का भी बयान दर्ज किया गया। अनुरोध करने पर पीड़ित लड़की का धारा 164 का बयान भी दर्ज किया गया। जांच पूरी होने पर चार्जशीट दाखिल की गई।

 

निचली अदालत ने आरोपी के अपराध का निष्कर्ष निकाला और पाया कि आरोपी नाबालिग लड़की के साथ बार-बार संभोग करने के लिए पॉक्सो अधिनियम की धारा 5 (एल) के तहत दोषी है। अदालत ने आरोपी को नाबालिग लड़की के अपहरण का भी दोषी पाया और उसे आईपीसी की धारा 363 के तहत दंडित किया।

 

आरोपी ने तर्क दिया कि गवाहों द्वारा दिया गया घटना का विवरण विसंगतियों से भरा था। इसके अलावा, पीड़िता के धारा 164 के बयान में पेनेट्रेटिव यौन हमले का कोई उल्लेख नहीं है। इसलिए, पीड़िता का मुखर साक्ष्य जो उसके बयान के विपरीत हैं, उस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

 

उन्होंने यह भी तर्क दिया कि दुर्घटना रजिस्टर में रिकॉर्ड किया गया है कि हाइमन पूर्ण था, जबकि डॉक्टर ने बयान दिया है कि हाइमन फटा हुआ था। इस तरह की विसंगतियों का अभियोजन के मामले की विश्वसनीयता पर असर पड़ता है।

 

उन्होंने आगे तर्क दिया कि पीड़ित लड़की खुद आरोपी के साथ गई थी और इसलिए, अपहरण की थ्योरी का समर्थन नहीं किया जा सकता है। उन्होंने यह भी दलील दी कि सजा की मात्रा अत्यधिक है और साबित अपराध के लिए अनुपातहीन है।

 

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि पीड़िता घटना के समय एक 16 साल की लड़की थी और इसलिए सहमति व शादी के वादे पर संबंध बनाए जाने के कारण इसे जबरन यौन संबंध नहीं माना जा सकता है।

 

दूसरी ओर, राज्य ने प्रस्तुत किया कि पीड़ित लड़की का मुखर साक्ष्य स्पष्ट और साफ है। इसके अलावा, पीड़ित लड़की से कोई जिरह नहीं की गई थी। सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दिए गए बयान की विसंगतियों को इंगित करने वाली ऐसी जिरह के अभाव में, पीड़ित लड़की के मुखर साक्ष्य के प्रभाव को कम करने के लिए आरोपी द्वारा धारा 164 के बयान पर भरोसा नहीं किया जा सकता है।

 

चिकित्सा साक्ष्य में विसंगतियों के संबंध में, यह कहा गया कि यह केवल एक अपूर्ण भाषा के कारण हुआ है। इसलिए यह चिकित्सा विशेषज्ञ की गवाही को नकारने या अभियोजन की थ्योरी पर अविश्वास करने का आधार नहीं हो सकती है।

 

उन्होंने आगे तर्क दिया कि अगर सहमति भी थी, तो भी वह आरोपी के किसी काम नहीं आ सकती थी, क्योंकि नाबालिग की कोई भी सहमति अमान्य है। न्यायालय का अवलोकन अपहरण के अपराध के संबंध में, अदालत ने कहा कि इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि नाबालिग लड़की के आचरण ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह अपनी मर्जी से आरोपी के साथ गई थी।

 

अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भरोसा किया, जहां समान परिस्थितियों में, यह माना गया है कि अपहरण का अपराध साबित करने के लिए, यह स्थापित किया जाना चाहिए कि आरोपी की उसके बाहर निकलने और उसे घर से दूर ले जाने में भूमिका थी।

 

पॉक्सो अधिनियम के तहत किए गए अपराधों के संबंध में, अदालत ने कहा कि सहमति होने के बावजूद निचली अदालत का आदेश उचित था। चूंकि पीड़िता से कभी जिरह नहीं की गई, धारा 164 के बयान और मौखिक साक्ष्य में विरोधाभास स्पष्ट नहीं किया जा सका।

 

अदालत ने कहा, ”इस तरह की कवायद के अभाव में, धारा 164 के बयान और मौखिक साक्ष्य के बीच विरोधाभास का आरोपी द्वारा पॉक्सो अधिनियम की धारा 29 के तहत बनाई गई धारणा को खारिज करने के लिए लाभ नहीं उठाया जा सकता है।”

 

सजा की मात्रा के पहलू पर, अदालत इस तथ्य से संतुष्ट थी कि आरोपी और पीड़िता के बीच किसी तरह का संबंध था। यह देखते हुए कि सजा का उद्देश्य सुधार है, अदालत ने मामले के विशेष तथ्यों को देखते हुए आजीवन कारावास की सजा को संशोधित कर दिया और इसे 20 साल के कठोर कारावास की सजा में तब्दील कर दिया।

 

जुर्माना और सजा की डिफ़ॉल्ट अवधि बरकरार रखी गई है। वहीं पहले से काट ली गई सजा की अवधि को सीआरपीसी की धारा 428 के तहत सेट ऑफ करने का निर्देश दिया गया है।

 

 

केस नंबर- सीआरएल अपील (एमडी) नंबर 354/2021 

निर्णय पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

 


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