जख्म | ऑनलाइन बुलेटिन

©रामचन्द्र प्रसाद त्यागी
परिचय- अध्यक्ष; दलित साहित्य एवं संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश.
जख्म फिर से हरें हों
यह मैं नहीं चाहता
मैं भूलना चाहता हूं
तुम्हारी संस्कृति
तुम्हारी सभ्यता
तुम्हारा संस्कार
जो शदियोँ से
इंसानियत के सीने पर
मूँग–
दल रहा है।
जब भी मैने
फुटपाथ के जीवन को
सहलाने की-
कोशिस की
महिलाओं संग
हो रहे दुराचार को
रोकने की
कोशिस की
मन्दिरों में स्थापित
देवदासी व्यवस्था
के विरुद्ध
आवाज उठाने की कोशिस की
तुम सदा ही
राह में रोड़े रहे हो।
तुम्हारे ब्यवस्था के विरुद्ध
एक लम्बे समय तक
सोये हुए लोग
करवटे बदलने लगें हैं।
जमे हुए जख्म के बर्फ
अब पिघलने लगे हैं।
लोग मन्दिरों की राह छोड़
विद्यालय की ओर बढ़ने लगे हैं।
मनुस्मृति को जला कर
संविधान पढ़ने लगे हैं।
बौद्घिक विचारों का–
अनुशरण करने लगे हैं।
अब समय है–
चेतो-सम्हलों
वर्ना अब समय
तुम्हारे अनुकूल नहीं है।
हमने छोड़ दी है
गांधीगीरी
कि-
एक गाल पर
कोई तमाचा मारे
तो दूसरा प्रस्तुत कर दे।
हमने पकड़ ली है राह
भगत सिंह की
जो–रोपते थे बन्दूक
जमीन में ।
उधम सिंह को
मान लिया है
अपना आदर्श।
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