ज़ंग-ए-मैदान | ऑनलाइन बुलेटिन
©भरत मल्होत्रा
परिचय- मुंबई, महाराष्ट्र
सूखे हुए गुलाब, यूँ खत से गिरा दिए,
जैसे किसी ने खून के कतरे गिरा दिए,
ये ज़िन्दगी है ज़ंग के मैदान की तरह,
बुज़दिल ने इसी फ़िक्र में कंधे गिरा दिए,
चिड़िया न कर सकी कुछ रोने के अलावा,
जब घोसले ने उसके दो बच्चे गिरा दिए,
यादों की जिल्द बारहा कमजोर क्या हुई,
इक डायरी ने दर्द के, पन्ने गिरा दिए,
बाज़ार से मैं लाया था, सच बेच के मगर,
इक आइने ने झूठ के चेहरे गिरा दिए,
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