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तोड़ दो रिवाजों को | ऑनलाइन बुलेटिन

©राजेश दयोरा

परिचय– कैथल, हरियाणा


 

 

तोड़ दो

सारे रिवाजों को

जो पैदा होते ही

बांध देते हैं बन्धनों में।

तुम हवा हो,

जहां से भी गुजरोगी

खुशियां फैला दोगी,

सूखा दोगी मेहनत

से तर बतर सीने

के पसीने को,

बदल दोगी

एक ठंडे झोंके से

मेहनतकश की

माथे की लकीर

तुम हवा जो हो।

खोल दो अब

अपना मुख,

हर झूठी रीतियों पर,

सीख लो चिल्लाना,

ऐसा चिल्लाना कि

जब कोई साहूकार

निकले बाहर तो

तुम तेज धूपसे मिल

लू बन झुलसा देना

उसके लाल दिखने

वाले काले चेहरे को।

तुम से ये दुनिया है

तुम जानती हो,

भले ही बचपन

से तुम्हे सिखाया

गया होगा पर्दे की

ओट में रहना।

उड़ा दो उन परदों

को,फाड़ दो उस

आँचल को जो तुम्हे

रखता हो कैद

इज्जत के नाम पर।

तुम हवा जो हो।

जहां से भी

गुजरोगी लहलहा

दोगी किसानों की फसलें,

तुझे देख, सुन कर

तेरी संगीतमय मधुर आवाज़,

मजदूर भी गुनगुनाने लग

जाते है अक्सर

भूल के थकान को,

तुम हवा जो हो।

जहां से गुजरोगी

चेहरे पर नूर ला

दोगी हर उस

आशिक के,

जो गीत,गज़लें

शायरी लिखता

व सुनता है,अपनी

प्रेमिका की याद में।

देखा है अक्सर

प्यार,ममता,सहानुभूति,

इज्जत,सम्मान,

त्याग तुम्हारे पास।

तुम हवा जो हो।

यही स्वभाव है

तुम्हारा

लेकिन भूल,

कर जाते हैं,अक्सर

कुछ समंदर,

बादल, पेड़ जो

तुमको समझते

हैं बिना अस्तित्व के

क्योंकि बादलों को

जलते देखा है,

तुम्हारे प्रकोप से

समंदर भी

हिल उठते हैं

तुम्हारी आवाज़ से,

पेड़ भी उखाड़

देती हो तुम

जब तुम्हे कहता है

कोई कि हवा ही तो है

क्या बिगाड लेगी।

तब तुम

हवा नही रहती

बन जाती हो

विकराल मौत

हर उस शख़्स

के वास्ते जो

तुम्हे समझअदना

रोक लेना चाहता है

अपनी झूठी,

पाखंडी और

बेबुनियादि दीवारों में

बिंदास बहने से।

तुम्हारा तो

स्वभाव ही है

स्वछंद बहना

बिना भेद के,

बिना डर के,

तुम नही जाती

किसी साहूकार

के घर विशेष,

तुम नही बहती

किसी रजवाड़े के

मुंडेरों पर ही।

तुम तो हमेशा से

बहती हो,

जंगलों में,नदियों में,

आसमानों में,

किसान के खेतों में,

मजदूर के झोपड़ों

हर उस जगह

जहां मिलता हो

मधुर संगीत

भरा स्नेह तुम्हे,

तुम हवा जो हो,

तुम्हारी फितरत

है दुनिया से प्यार

लेना व प्यार देना।

और हद होने पर

हद से गुजर जाना।

तुम हवा जो हो।


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