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सस्ते मेले की महंगी कुल्फी | ऑनलाइन बुलेटिन

©दीपाली मिरेकर

 परिचय– विजयपुरा, कर्नाटक


 

 

यह कहानी एक ऑफिसर बेटा और किसान पिता की है। गांव के आंचल में पला बढ़ा बेटा शहर में ऑफिसर बनता है। एक छोटे से गांव से शहर तक का सफ़ल सफ़र रोचक है। बेटा भले ही शहर में नाम शोहरत कमाता है। परंतु अपनी गांव की सादगी से बिछड़ता नहीं है।

 

सरल स्वभाव उच्च विचार का ऑफिसर बेटा एक दिन अपने गांव के मेले में अपने बीवी- बच्चों के साथ खुशी- खुशी आता है। व्यक्तित्व और संपत्ति का धनी ऑफिसर बेटा पिता के समक्ष एक नन्हे बालक जैसे मेले में जाने के लिए बूढ़े पिता से पैसों की जिद्द करता है। पिता के आंखों में एक झिझक सी होती है।

 

वह बेटे से प्यार से कहता है “बेटा में तुम्हें क्या दे सकता हूं?? ” और कुछ सोचते हुए वह अपने एक पुराने पेटी में कुछ ढूंढता है। उस टूटी फूटी पेटी में उन थकी हथेली को 5 रुपए मिलते हैं। धुंधली आखों से पैसे के चिल्लहर बार- बार गिनते हुए उसका चेहरा मुरझा जाता है। उस पेटी में सिर्फ 5 रुपए थे। अमीर बेटे को मेले के लिए 5 रुपए कैसे दे दूं?? यह सोचते हुए नि:शब्द होकर हाथ बांधे बेटे के समक्ष बूढ़ा बाप खड़ा रहता है।

 

दूर खड़ा हुए बेटा यह सब देखता रहता है। बाप की बंधी मुट्‌ठी बेटा धीरे से खोलता है। “बाबा इस मुट्ठी में आपने मेरे खुशियों का पिटारा छुपाकर रखा है। आपके द्वारा मिला एक रुपए के समक्ष दुनिया की करोड़ो संपत्ति कौड़ी के मोल में है। बाबा क्या आपके बेटे को दो रुपए देंगे?? मुझे मेले में कुल्फी खानी है।”

 

बेटे की बात सुनते हैं पिता की आंखें भर आती है। बाप- बेटे खुशी- खुशी मेले में जाकर दो- दो रुपए की कुल्फी ख़रीद कर फिर से अपनी दुनिया को जिते हैं।


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