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मजबूरी | Onlinebulletin

©प्रीति बौद्ध, फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश


 

श्रावणी दोपहर में उसको

देखा ईटें ढोते हुए सिर पर

श्यामल तन कोमल मन

चेहरा भोला सुघढ़ यौवन

देख स्त्री की दशा ठिठक गई मैं।

 

दूधमुंहा बच्चा रो रहा था

रो रो कुछ कह रहा था

मां की गोद मांग रहा था

या माँ का दूध मांग रहा था

उसकी चाहत न समझ पाई थी मैं।

 

दैनिक मजदूरी करती थी

परिवार का पेट भरती थी

बच्चा बांधा पेड़ की छांव में

बनी थी उसकी झोपड़ी गांव में

उनकी आपसी बातें सुन रही थी मैं ।

 

 

दिन भर रोया उसका लाल ।

बिन माँ के हुआ बुरा हाल,

मजबूरी ने दोनों को तड़पाया।

आखिर में बेटे को गोद उठाया,

देख माँ बेटे का मिलन, सजल नेत्र हो गई मैं ।


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