कितनी दहशत फैलाए हो | newsforum
©द्रौपदी साहू (शिक्षिका), कोरबा, छत्तीसगढ़
कितनी दहशत फैलाए हो, कोरोना इस जहान में।
लौट जाओ अब तो तुम, अपने जन्म स्थान में।।
त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, बच्चे, बूढ़े और जवान।
मजबूरी और बेबसी का, अब ना लो तुम इम्तिहान।।
घर में कोई भूखा है, तो कोई बिस्तर में पड़ा।
ना जाने कब मौत आये, दरवाजे है यम खड़ा।।
कितनी जानें ले ली तुमने, अब भी प्यासे हो खड़े।
बीत चुके एक वर्ष फिर भी, विष फैलाए हो बड़े।।
दफ़्तर सारे बंद पड़े हैं, गलियां सूनी हैं पड़ी।
निकले जो गलियों में तो फिर, हाथ पसारे हो खड़ी।।
पढ़ना लिखना हो गया है, मुश्किल बीते साल से।
वक्त भी लगता है ठहरा, मानो अपनी चाल से।।
रोजी-रोटी चल रही थी, जैसे-तैसे काम से।
घर में बैठे हैं सभी अब, क्या खाएं आराम से।।
कटती न ये दिन ये रातें, विपदा कैसी ये टले।
कब कोरोना दूर हटे, और कब खुशी के दीप जले।।
घर में बंधक बन गए हैं, आजादी के देश में।
मुंह छुपाना पड़ रहा है, अपने घर परिवेश में।।
बिन देखे अंतिम घड़ी में, अर्थी शमशान जा रही।
कर्म अधूरे छोड़ सारे, भव से ऐसे जा रही।।
गोद में शव लेके धरती, बिलख बिलख कर रो रही।
ना जाने किस पाप का, बोझ सारे ढो रही।।
रक्त अश्रु बह रहे हैं, घर-कुटुंब-जहान में।
लौट जाओ अब तो तुम, अपने जन्म स्थान में।।
कितनी दहशत फैलाए हो, कोरोना इस जहान में।
लौट जाओ अब तो तुम, अपने जन्म स्थान में।।