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”मैं भंगी हूं ” आज भी प्रासंगिक | Newsforum

©संजीव खुदशाह, {संस्मरण} रायपुर, छत्तीसगढ़

लेखक देश में चोटी के दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं और प्रगतिशील विचारक, कवि, कथाकार, समीक्षक, आलोचक एवं पत्रकार के रूप में भी जाने जाते हैं। “सफाई कामगार समुदाय” एवं “आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग”, “दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल” आपकी चर्चित कृतियों में शामिल है। आपकी किताबों का मराठी, पंजाबी, ओडिया सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।


 

सन् 1983-84 के आस-पास जब मैं छठवीं क्लास में था। समाज के सक्रिय कार्यकर्ताओं की बैठक में, मैं भी शामिल हो जाया करता था। वहीं पर पहली दफा यह तथ्य सामने आया कि हमारे बीच के एक सुप्रीम कोर्ट के जज (वकील हैं ये जानकारी बाद में हुई) हैं, जो समाज के लिए भी काम कर रहे हैं। मुझे इस जज के बारे में और जानने की उत्सुकता हुई, किन्तु यादा जानकारी नहीं मिल सकी। इस दौरान मैंने डॉ. अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़ी। दलित समाज के बारे में और जानने पढ़ने की इच्छा जोर मार रही थी। रिश्ते के मामाजी जो वकालत की पढ़ाई कर रहे थे, मुझे किताबें लाकर देते थे और मैं उन्हें पढ़कर वापस कर देता था।

 

उन्होंने अमृतलाल नागर की ”नाच्यो बहुत गोपाला” उपन्यास लाकर दी, परिक्षाएं नजदीक होने के कारण उसे मैं पूरा न पढ़ सका। पढ़ाई को लेकर बहुत टेन्शन रहता था। माता-पिता को मुझसे बड़ी अपेक्षाएं थी जैसा कि सभी माता-पिता को अपने बच्चों से रहती है। चूंकि मैं मेधावी छात्र था इसलिए कक्षा में अपना स्थान बनाए रखने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती थी।

 

इस समय मेरे मन में समाज के लिए कुछ करने हेतु इच्छा जाग चुकी थी इसलिए कम उम्र का होने पर भी मैं सभी सामाजिक गतिविघियों में भाग लेने लगा। इसी दौरान मामाजी ने मुझे यह किताब लाकर दी ”मैं भंगी हूं” इसे मैंने दो-तीन दिनों में ही पढ़ डाली। मन झकझोर देने वाली शैली में लिखी इस किताब ने मुझे बहुत अंदर तक प्रभावित किया। चूंकि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी, इसलिए इस किताब को मैं खरीद नहीं पाया। पिताजी की छोटी सी नौकरी के साथ घर का खर्च बड़ी कठिनाई से चल पाता था।

मैं भंगी हूं किताब पढ़ते समय भी मुझे यह जानकारी नहीं थी कि ये वही सुप्रीम कोर्ट के जज हैं, जिनके बारे में मैंने सुना था। बाद में मुझे अन्य बुध्दिजीवियों से मुलाकात के दौरान ज्ञात हुआ कि वे जज नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं, जिन्होंने मैं भंगी हूं किताब की रचना की है। मैंने एक चिट्ठी एड. भगवानदास जी के नाम लिखी, जिसमें मैं भंगी हूं की प्रशंसा की थी।

 

अत्यधिक सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण तथा चिन्तन के कारण मैं स्कूल की पढ़ाई की ओर ध्यान नहीं दे पा रहा था। माता-पिता चिन्तित रहने लगे। मां ने अपने पिता यानी मेरे नानाजी को यह बात बताई। नानाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ-साथ समाज-सेवक भी थे। मैं उनसे बहुत प्रभावित था। मैं नानाजी की हर बात को बड़े ध्यान से सुनता था। वे रिलैक्स होकर बहुत रूक-रूक कर बातें करते थे। उन्होंने मुझे एक दिन अपने पास बिठाकर पूछा कि –

 

” तुम क्या करना चाहते हो..? ”

 

”मैं अपने समाज को ऊपर उठाना चाहता हूं।” मैंने गर्व से अपना जवाब दिया। यह सोचते हुए कि नानाजी मेरा पीठ थपथपाएंगे। मेरा उत्साहवर्धन करेंगे।

 

”जब तुम खुद ऊपर उठोगे तथा ऐसी मजबूत स्थिति में पहुंच जाओगे कि तुम्हारे नीचे आने का भय नहीं होगा, तभी तो तुम दूसरों को ऊपर उठा सकोगे। ये तो बड़े दु:ख की बात है कि तुम तो खुद नीचे हो और दूसरों को उपर उठाना चाहते हो। ऐसी उल्टी धारा तो मैंने कही नहीं देखी।” -उन्होंने कहा उनकी इस बात का मेरे जेहन में बहुत असर हुआ और सामाजिक गतिविधियों पर से ध्यान हटाते हुए मैंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना प्रारंभ किया।

 

1998 में मुझे शासकीय नौकरी मिली, इसी बीच मैं सुदर्शन समाज, वाल्मिकी समाज के कार्यक्रमों में एक दर्शक की भांति जाता था। मुझे सुदर्शन ऋषि का इतिहास जानने की इच्छा होती मैं इस समाज के नेताओं से इस बाबत पूछताछ करता तो सब अपनी बगले झाकनें लगते। मैंने इसका इतिहास विकास उत्पत्ति हेतु सामग्री इकट्ठी करनी शुरू की। मैं जैसे-जैसे किताबों का अध्ययन करता गया, मेरी आंखों से धुंध छंटती गई। अब सुदर्शन ऋषि, वाल्मिकी ऋषि एवं उनके नाम पर समाज का नामाकरण मुझे गौण लगने लगा। डॉ. अम्बेडकर की शूद्र कौन और कैसे ? तथा अछूत कौन है ? पढ़ी तो पूरी स्थिति स्पष्ट हो गई। दलित आन्दोलन से ही समाज ऊपर उठ सकता है, मुझे विश्वास हो गया।

 

मैंने अपनी चर्चित पुस्तक “सफाई कामगार समुदाय” पर काम करना प्रारंभ किया। कई किताबों, लाइब्रेरियों की खाक छानी, बुध्दिजीवियों के इन्टरव्यू लिये। इसी परिप्रेक्ष्य में मेरा दिल्ली आना हुआ और मेरी मुलाकात एड. भगवानदास जी से हुई। मैंने पहले उनसे फोन पर बात की, उन्होंने शाम को मिलने हेतु समय दिया। जब शाम को फ्लैट में उनसे मुलाकात हुई तो देखा सफेद बाल वाले, उंची कद के बुजुर्ग कक्ष में किताबों से घिरे बैठे है।

 

मैंने उन्हें बताया कि मैं उनकी किताब से बहुत प्रभावित हूं तथा उन्हें एक चिट्ठी भी लिखी थी। अभी मैं इस विषय पर रिसर्च कर रहा हूं। उन्होंने कहा चिट्ठी इस नाम से मुझे मिली थी। मैंने सफाई मुद्दे पर कई प्रश्न पूछे, उन्होंने बड़ी ही संजीदगी के साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि मैं ऐसा कोई गंभीर काम करने जा रहा हूं। वे इसे मेरा लड़कपन समझ रहे थे। उनका व्यवहार, उनके मन की बात मुझे अनायास ही एहसास करा रही थी।

 

वे कह रहे थे लिखने-विखने में मत पड़ो और खूब पढ़ो। उन्होंने अंग्रेजी की कई किताबें मुझे सुझाई। मैंने उनको नोट किया। ये किताबें मुझे उपलब्ध नहीं हो पाई। शायद आउट आफ प्रिन्ट थीं। उन्होंने अपनी लिखी कुछ किताबें मुझे दीं और अपने पुत्र से कहने लगे, इनसे किताब के पैसे जमा करा लो। मैंने एक किताब ली और शेष किताबें पैसे की कमी होने के कारण नहीं ले सका। यही मेरी उनसे पहली मुलाकात थी। उनसे मैंने उनकी जाति संबंधी प्रश्न पूछा, लेकिन वे टाल गए। शायद वे मुझे सवर्ण समझ रहे होंगे। मैं लौट आया।

 

इस समय राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने इस किताब को प्रकाशित करने हेतु सहमति दे दी थी। 2005 को यह किताब प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध हो गई। नेकडोर ने सन 2007 को दलितों का द्वितीय अधिवेशन आयोजित किया। उन्होंने मुझे सफाई कामगार सेशन के प्रतिनिधित्व हेतु आमंत्रित किया।

 

दिल्ली में हुए इस कार्यम में एड. भगवानदास जी भी आये थे। मैंने उनसे मुलाकात की एवं हालचाल पूछा लेकिन वे मुझे पहचान नहीं पा रहे थे। शायद उनकी स्मरण-शक्ति कुछ कम हो गई थी। कुछ लोग विभिन्न भाषा में मै भंगी हूं किताब के अनुवाद प्रकाशित होने पर बधाई दे रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ अनुवाद के बारे में उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की। वे बधाई सुनकर बिल्कुल नार्मल थे। कोई घमंण्ड का भाव नहीं था। सबसे साधारण ढंग से मुलाकात कर रहे थे।

 

जब सफाई कामगारों पर सेशन प्रारंभ हुआ तो वे स्टेज में मेरी बगल में बैठे थे। मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आने लगे, जब सामाजिक गतिविधियों में इनके बारे में चर्चा सुना करता था। बड़े ही गर्व से लोग इनके कार्यों की प्रसंशा करते थे। आज मैं अपने-आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूं कि उनके साथ मुझे वक्तव्य देने का मौका मिला। स्टेज पर ही उन्होंने मुझसे पूछा-

 

संजीव खुदशाह जी, आप ही हैं न..?”

 

”जी हां” -मैंने कहा हा ।

 

”मैंने आपकी किताब देखी, बहुत ही अच्छी लिखी है आपने। इस विषय पर इस तरह की ये पहली किताब है।” – उन्होंने कहा।

 

इतना सुनकर मेरी आंखें नम हो गईं। मैंने उनको धन्यवाद दिया और कहा- ” आदरणीय इस किताब में आपका भी जिक्र है। मैंने शोध के दौरान आपका इन्टरव्यू भी लिया था।”

 

वे मेरी ओर देखते हुए अपनी भृकुटियों में जोर डाल रहे थे, साथ ही सहमति में सिर भी हिला रहे थे।

 

आज उनकी जितनी भी किताबें उपलब्ध हैं, वह भंगी विषय पर पहले पहल किए गए काम का उदाहरण है। वे ये कहते हुए बिल्कुल भी नहीं शर्माते हैं कि उन्हें हिन्दी नहीं आती (आशय संस्कृत निष्ठ हिन्दी से है।)। फिर भी साधारण भाषा में लोकप्रिय साहित्य की रचना उन्होंने की है। अपनी शैली के बारे में वे लिखते हैं कि मैं भागवतशरण उपध्याय की ”खून के छीटे इतिहास के पन्ने पर” पुस्तक की शैली से प्रभावित हूं। अंग्रेजी और उर्दू भाषा पर वे अपना समान अधिकार समझते हैं। बावजूद इसके हिन्दी में उनकी कृति ”मैं भंगी हूं” आज भी प्रासंगिक है।

 


 

लेखक परिचय :- जन्म 12 फरवरी 1973 को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। शिक्षा एमए, एलएलबी। आप देश में चोटी के दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं और प्रगतिशील विचारक, कवि, कथाकार, समीक्षक, आलोचक एवं पत्रकार के रूप में भी जाने जाते हैं। आपकी रचनाएं देश की लगभग सभी अग्रणी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीं हैं। “सफाई कामगार समुदाय” एवं “आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग”, “दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल” आपकी चर्चित कृतियों में शामिल है। आपकी किताबों का मराठी, पंजाबी, ओडिया सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। आपकी पहचान मिमिक्री कलाकार और नाट्यकर्मी के रूप में भी स्थापित है। छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन से निबंध विधा के लिए पुर्ननवा पुरस्कार सहित आप कई पुरस्‍कार एवं सम्मान से सम्मानित किए जा चुके हैं।

E-mail- sanjeevkhudshah@gmail.com

 


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