स्मृति में मां | Newsforum
©प्रदीप कुमार दाश “दीपक”, रायगढ़, छत्तीसगढ़
परिचय– हिन्दी व्याख्याता, एमए, बीएड, CG SLET उत्तीर्ण, प्रकाशित कृति– मइनसे के पीरा, छत्तीसगढ़ी का प्रथम हाइकु संग्रह, हाइकु चतुष्क- [हिन्दी, उड़िया, छत्तीसगढ़ी व संबलपुरी], संवेदनाओं के पदचिह्न, रूढ़ियों का आकाश, प्रकृति की गोद में, उडिया हाइकु संग्रह- काशतण्डीर हस, अंतर्मन की हूक, गुनगुनी सी धूप, भावों की कतरन, अनूदित कृति- उपन्यास- वंदे मातरम्, परछाइयां व सैकड़ों सम्पादित कृतियां व रचनाओं का प्रकाशन.
सम्मान- कोविद, दीनबंधु, राष्ट्रभाषा रत्न, राष्ट्रभाषा आचार्य, शास्त्री, लोक कवि कबीर पुरस्कार, राष्ट्रीय युवा साहित्यकार सम्मान, मैन ऑफ द इयर – 2001, राष्ट्रभाषा प्रचारक, सरस्वती प्रतिभा सम्मान, रवीन्द्रनाथ टैगोर लेखक पुरस्कार, अंबेडकर फैलोशिप सम्मान, धन्नाजी नाना चौधरी पुरस्कार, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान, हाइकु मञ्जूषा रत्न सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, काव्यश्री सम्मान, हाइकु द्रोण सम्मान, साहित्य मार्तण्ड सम्मान, श्रेष्ठ संपादक रत्न सम्मान, हिन्दी सेवी सम्मान, साहित्य के दमकते दीप साहित्यकार सम्मान, साहित्य अभ्युदय सम्मान, छत्तीसगढ़ रत्न सम्मान, बाबु बालमुकुंद गुप्त साहित्य सेवा सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस साहित्य रत्न सम्मान, निर्मला स्मृति अनुवाद साहित्य सम्मान, साहित्य गौरव सम्मान, मात्सुओ बासो शब्द शिल्पी सम्मान, श्रेष्ठ युवा रचनाकार सम्मान, राष्ट्रभाषा आचार्य परीक्षा भारत में प्रथम स्थान हेतु स्वर्ण पदक प्राप्त, गुजरात विश्वविद्यालय से रजत स्मृतिचिह्न प्राप्त, विश्व के प्रथम रेंगा संग्रह के संपादन हेतु इण्डिया बुक ऑफ रिकार्ड़्स द्वारा वर्ष 2017 में “फर्स्ट इण्डो जापान पोयट्री वेन्चर” अवार्ड, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा शताब्दी सम्मान, तथा भारत के कई साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों द्वारा पुरस्कृत व सम्मानित।
स्मृति में मां
अंतस में बसी हुई उसकी स्मृतियां
केवल स्मृतियां ही नहीं
मानो हों झंझावातें
कि झकझोर कर रख देती हैं
भीतर और बाहर ।
किस मिट्टी की थी बनी, पता नहीं
सब कुछ सह लेती
बीमार थी मां
चाहती थी स्वस्थ होना
क्योंकि –
बहुत प्रेम करती थी –
अपने परिवार से
इसलिए चाहती थी वह जीना ।
घर से निकलते समय
नहीं था उसे पता
कि फिर वो कभी वापस नहीं आ पाएगी घर
नहीं था उसे पता
कि चंद सांसें ही शेष बची हैं उसके पास ।
बहुत आशान्वित थी जीवन से
पूरी जो करनी थी उसे
अपनी बहुत सी छोटी-छोटी ख्वाहिशें
पूरे करने थे उसे
अरसों से देख रहे
कुछ अधूरे छोटे-छोटे पुराने सपने
कि विदा करेगी –
अपने हाथों
अपनी प्यारी-प्यारी गुड्डियों जैसी बेटियों को
घर में लाएगी मन पसंद बहुएँ
संग रह कर
बाँटना चाहती थी
जीवन के वे सारे हुनर
जो समय के थपेड़ों ने
उसे सिखाया था
घर गढ़ेगी अपनी इच्छानुरुप
वह चाहती थी
पढ़ लिख कर उसकी संतानें
बनें बड़े इन्सान
कमाएँ मान-सम्मान ।
अपनी आँखों से
सब कुछ चाहती थी देख लेना
घर को घर नहीं
चाहती थी स्वर्ग बनाना
इसलिए चाहती थी वह जीना ।
फँस चुकी थी पूरी तरह
कुटिल नियति की चाल में
अचानक जब एहसास हुआ
कि अब नहीं जी सकती वह
दुःख बहुत हुआ था उसे
भीतर से टूट गई थी उस दिन
कोस रही थी नियति को अपनी
सूखी आँखों से ढुलक पड़े थे – आँसू
निस्तब्ध हो गई थी मां
लेटे-लेटे ऊपर देखते हुए
बात कर रही थी ईश्वर से
शायद पूछ रही थी –
कि इतना निर्मम क्यों है तू ?
वाह रे ईश, वाह तेरे विधान……
इस दुनिया में
जिसे जरुरत सबसे ज्यादा
लूट लेता है उससे ही क्यों तू
उसका ही सारा जहान ।
मां जानती थी
धूरी जो थी वह घर की
जानती थी, उसके बिना
अनाथ हो जाएगा उसका पति
अनाथ हो जाएंगे उसके बच्चे ।
संघर्षों की डगर
जीवन भर जूझती रही
देखी नहीं पीछे मुड़ कर कभी
कभी हार नहीं थी मानी
सदा आगे बढ़ती रही मां
परेशानियों से जूझना
था उसके लिए चुटकियों का काम ।
अंतिम पल
पहली बार आज
हार चुकी थी जीवन से
नहीं चाहती थी वह मरना ।
सब कुछ समझ गई मां
कि विदा हो रही है वह इस जग से
इसलिए बदल गई थी चाहत उसकी
अब वो चाहती थी
एक बार नियति को जी भर कोस लेना
पूरे परिवार को
अंतिम बार अपने पास देखते हुए
फूट-फूट कर रो लेना
अंतिम इच्छा हो पूरी
नियति को शायद
नहीं थी इसकी मंजूरी
लूट गई जीवन की सारी खुशियाँ
सब कुछ खत्म हो गया
एक मौत आई थी उस दिन
मर गई मां……
कुटिल नियति ने
छिन ली थी उस दिन
हमारी सारी चाहतें
हमारी सारी हसरतें
छिन गई थी हमसे
हमारे हिस्से की मां..
जज़्बात बड़े
लफ्ज़ छोटा सा-
“मां”
नहीं जिसकी कोई तुलना
“मां”
नहीं जिसकी कोई उपमा
स्मृति में आज भी विराजी है-
“मां”, “मां”, “मां”…
सिर्फ “मां” ।