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प्रकृति का पत्र मानव के नाम । Newsforum

©डॉ. कान्ति लाल यादव, सहायक आचार्य, उदयपुर, राजस्थान

परिचय : शिक्षा– एमए, नेट, पीएचडी, बीईडी, एलएलबी, डीएलएल, बीजेएमसी, भागीदारी– 9 अंतर्राष्ट्रीय एवं 30 राष्ट्रीय संगोष्ठी में पत्र वाचन, शोध लेखन -35 शोधलेख, आलेख, कविताएँ, कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, दो काव्य संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा 4 अन्य पुस्तकें प्रकाशनरत, सम्मान– 4 राष्ट्रीय एवं 8 अन्य सम्मान प्राप्त।


 

मेरे प्यारे बच्चों ! सृष्टि कि तुम मेरी सबसे सुंदर रचना हो। मैं ही तुम्हारी माता और पिता हूं। लोग मुझे प्रकृति कहते हैं और मैं ही तुम्हारा भगवान हूं। क्योंकि ‘भगवान’ में ‘भ’ से भूमि, ‘ग’ से गगन, ‘व’ से वायु, ‘अ’ से अग्नि तथा ‘न’ से नीर बना है। मैं कहां तुमसे दूर हूं। तुम ही मुझे दूर कर रहे हो। जिससे मैं दु:खी हूँ।

 

मैं प्रकृति हूं, इसी वजह से मैं अपना फर्ज दूसरों के उपकार हित सदा निभाते आई हूं। निभाती रहूंगी, किंतु मानव मेरे संसाधनों का दोहन कर उसका गलत प्रयोग कर रहा है। वह समझ रहा है कि यही सही विकास है लेकिन यह उसका भ्रम है। गौतम बुद्ध ने भी कहा है-” प्रकृति के नियमों को कोई नहीं बदल सकता। एक ही मार्ग है खुद को बदलो।”

 

मानव के लिए प्रकृति वरदान है तो पृथ्वी आशियाना है। अंतरिक्ष छत है, तो सूरज- चांद आंखें हैं। तारे दीपक हैं। नदियां अपनी जान जलधरा से हरित पट के रुप में श्रृंगार करतीं हैं तो सागर इस के घड़े हैं। पहाड़ इसकी दौलत है। प्रकृति (मुझे) भगवान के द्वारा बनाई गई एक अद्भुत उपहार है, जिसे पाकर हर किसी का मन गद्-गद् प्रसन्न हुए बिना नहीं रह सकता है। पानी, हवा, भूमि, पेड़, जंगल, पहाड़, नदी, सूरज, चांद, आकाश, तारे, समुद्र, रेगिस्तान, बारिश, वातावरण, पठार, झील, मौसम यह सभी प्रकृति के विभिन्न रूप हैं। समय के साथ-साथ प्रकृति अपना रूप बदलती रहती है। हमारे स्वास्थ्य पर भी प्रकृति असर डालती है। हमें स्वस्थ रहना है तो प्रकृति हमारे लिए अति आवश्यक है। अतः मेरी रक्षा करना तुम्हारा परम कर्तव्य है मानव।

 

प्राकृतिक पर्यावरण ही हमारी प्रकृति है। जो हमारे जीवन रूपी कवच के समान है। हमें सुरक्षा प्रदान करती है। प्रकृति हमें स्वस्थ रखती है किंतु हम प्रकृति को अस्वस्थ कर रहे हैं। हम ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देने में नहीं चूक रहे हैं। हम अपना विकास इसी में समझ रहे हैं। तकनीकी ही विकास है यह हमारा भ्रम है। यथार्थ यह है कि हमारा सच्चा विकास तो प्रकृति से ही संभव है लेकिन आज का मानव मानने के लिए कतई तैयार नहीं है। क्योंकि आज का मानव स्वार्थी और चालाक पहले के बनिस्बत कुछ ज्यादा हो चुका है। मैंने तुम्हारा पालन-पोषण एक माँ की भांति किया है किंतु तुम आज अपनी मां के साथ अन्याय करने में कहां चूक रहे हैं।

 

इसका खामियाजा भुगतने के लिए भी तुम्हें तैयार रहना होगा। यह मत भूल मानव प्राणी तुम मेरी बात को कान खोलकर सुन ले। प्राणी ! मत बन तू नादान!- “प्रकृति धरती का बगीचा है। जिसे आज तू बारूद की बौछार से तहस-नहस कर रहा है। प्रकृति को हर रंग में पाकर भी, हर गुणों को जानकर भी और तुम मुझे हर रूप में देखते हो फिर भी मुझे (प्रकृति से) धोखा कर रहे हो जो स्वयं के लिए घातक है। आज हमें यह बात कह रही से समझ नहीं होगी प्रकृति हमें जड़ी- बूटियां देती है। जंगली जानवरों को हम मार रहे हैं। जंगल को काट रहे हैं। नदियों को प्रदूषित कर रहे हैं। हमने मैदानों पर कल-कारखाने स्थापित कर दिए हैं। मिलों व कल-कारखानों से धुआं उड़ा रहे हैं। जिससे वातावरण में जहरीली गैसों से वातावरण प्रदूषित तथा इससे अपशिष्ट पदार्थों को दुनिया नदियों में बहा रहा है।

 

ग्लोबल वार्मिंग से पर्यावरण प्रदूषितहो गया है। इस दुष्प्रभाव के पड़ने की वजह से ग्लेशियर पिघल रहा है जिससे समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। वातावरण में, मौसम में, जलवायु परिवर्तन हो रहा है। पर्यावरण को स्वस्थ रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कम से कम पांच वृक्ष अवश्य लगाएं। कहा जाता है -“एक आम चार धाम”। मत्स्य पुराण में ठीक कहा है-“एक वृक्ष सौ पुत्रों के समान बताया गया है।” जिसकी वजह से ही वृक्षों की पूजा की परंपरा रही है।

 

साहित्यकार प्रेमचंद ने कहा है कि -“साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है जो जीवन में प्रकृति का है।” पहले हम प्रकृति की पूजा दिल से करते थे। प्रकृति हमारे दिल और दिमाग में बसी थी। हम अग्नि, आकाश, धरती, दिशाएं, जल, तुलसी, पीपल, खेजड़ी, गन्ना, केले की पूजा करते थे तो पशुओं में गाय, बैल, हाथी, सांप, कुत्ता की और हमारे नाम भी वृक्षों के नाम पर रखे जाते थे किंतु आज हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। प्रकृति का दोहन करने में हम हमारी होशियारी में माहिर हो गए हैं। मानव प्रकृति का विध्वंस कर रहा है और जानवर प्रवृत्ति हम पर सवार होती जा रही है।

 

यह संपूर्ण मानव जाति के लिए भयानक स्थिति की ओर इंगित करता है। सुबह हम सूर्योदय की सुंदरता को देखते हैं तो रात में खूबसूरत चांद की सुंदरता और तारों को दीपों के रुप में देख कर मन प्रफुल्लित हुए बिना नहीं रह सकता है। सुबह सूर्य की स्वर्णिम किरणों से रात में चांद की श्वेत चांदनी में इंसान को प्यारी रोशनी पाकर आनन्दानुभूती होती है तथा काले-काले मेघों ने धरती पर बरस- बरस कर भी कभी इंसान से बिल नहीं मांगा है। प्रातः चिड़िया की चहचहाहट का कलरव गान, नदियों का कल -कल मधुर गान, समुद्र से उठती लहरों की गूंज, हवाओं की सांय- सांय की पुकार। मानव को सदा आनंद और अनुभव देता है। प्रकृति हमें सिर्फ शारीरिक सुख सुविधा ही प्रदान नहीं करती बल्कि हमें मानसिक सुख-शांति भी प्रदान करती है।

 

प्रकृति को कवि, कलाकार, लेखक, चित्रकार सदा प्रकृति की गोद में बैठकर अपनी भावनाओं को अपनी तूलिका से कागज पर उतारता है। अपने जीवन में ही नहीं बल्कि दूसरों के जीवन में भी रंग भरता है। प्रकृति के साथ हम जिएंगे तो प्रकृति हमें अपना स्वभावानुसार हमें आनंद के साथ जीने की इजाजत देगी। ईश्वर ने हमें प्रकृति रूपी एक सुंदर अनमोल तोहफा इसलिए प्रदान किया है कि मनुष्य ईश्वर द्वारा बनाया गया अन्य प्राणियों से सबसे सुंदर है। किंतु आज मानव अति महत्वकांक्षी ही नहीं बल्कि अति चालाक बन गया है। वह अपने स्वार्थ को लेकर प्रकृति को क्षति पहुंचा रहा है।

 

इस अनमोल कीमती उपहार की कीमत को पहचानने से भी इनकार कर रहा है। मानव प्रकृति के साथ धोखा कर कहां जाएगा? दुनिया के प्रत्येक मानव को प्रकृति की रक्षा हेतु संकल्पित और कटिबद्ध होना चाहिए। हम विश्व प्रकृति दिवस 28 जुलाई को मनाते हैं। 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस, 22 मार्च को जल दिवस, 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस, 22 मई को जैव विविधता दिवस और 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस भी पूरी दुनिया में मनाते हैं किन्तु इन दिवसों को मात्र मना कर खुश होने से काम नही चल सकता हैं। मानव मात्र को तन-मन से संकल्पित होना पड़ेगा।

 

पर्यावरण से नाता गहरा करना पड़ेगा और समझना पड़ेगा पर्यावरण है तो हम हैं। प्रकृति है तो हम हैं। सप्ताह में एक दिन विश्व का प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण को बचाने के लिए साइकिल चलाएं। और एक दिन का अनाज को बचाने के लिए एक दिन सप्ताह में व्रत रखे और अपनी स्वार्थ पूर्व अपनी स्वार्थ वृत्ति पर काबू रखें प्रकृति सबकी है एक कि नहीं ।तभी यह संभव हो पाएगा।

 

प्रकृति हमें क्या-क्या नहीं देती हैं? फल-फूल, मेवे, सब्जियां, अनाज, शुद्ध ताजी हवा, औषधि सब कुछ देता है जीवन का आधार देती है। इसके अभाव में मानव जीवन संकट में पड़ जाएगा। प्रकृति हमें देती है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखे। वरना इसके दुष्परिणाम मानव को देखने होंगे जैसे प्रकृति का रूद्र रूप सुनामी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, गर्म हवा चलाना, जंगलों में आग लगना, भूकंप आना, विश्व महामारी फैलना, कई प्रजातियों का लुप्त होना आदि। राजस्थान में एक ऐसे महान संतु हुए जो गुरु जंभेश्वर जी के नाम से जाने जाते हैं। जिन्होंने विश्नोई संप्रदाय की स्थापना की थी।

 

विश्नोई अर्थात् 20 और 9 अर्थात् 29 शिक्षा दी थी। इन शिक्षाओं का पालन करने वाले को विश्नोई या बिश्नोई कहा जाता है। गुरु जंभेश्वर जी ने कहा था-” जीव दया पालणी, रुख लीलो न घावे।” अर्थात् जीव मात्र के लिए दया का भाव रखें और हरा वृक्ष नहीं काटे। जांभेश्वर जी ने यह भी कहा कि -” बरजत मारे जीव तहां मर जाइए अर्थात् जीव हत्या को रोकने के लिए अनुनय विनय करने,समझाने- बुझाने के बाद भी सफलता नहीं मिली तो स्वयं आत्म बलिदान कर दे। इसी संप्रदाय की अनुयाई अमृता देवी के बलिदान को कभी नहीं भुला जा सकता है जो प्रकृति प्रेमी थी।

 

मारवाड़ रियासत की खेजड़ी ली गांव में 1730 ईस्वी में मारवाड़ रियासत के राजा अभय सिंह एक महल बनाना चाहते थे। उसके लिए चुना गर्म करने के लिए पेड़ों की लकड़ियों की आवश्यकता पड़ी तो खेजड़ली गांव में सेना पहुंची। वहां बिश्नोई समुदाय की बस्तियां थी। वहां की अमृता देवी विश्नोई नाम की महिला ने इसका विरोध किया। अमृता देवी अपनी तीन बेटियों आशु, भागु और रत्नी के साथ पेड़ से लिपट गई और अपनी जान दे दी। “सर सांटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण।” अगर पेड़ों की रक्षा के लिए सर भी कट जाए तो भी सस्ता जान। इसके पीछे नहीं हटना।

 

83 गांव के 363 विश्नोई खेजड़ी के पेड़ों से लिपट गए तब मारवाड़ की सेना को वहां से हटना पड़ा। राजस्थान की अमृता देवी और उसकी बेटी के बलिदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। आज भी बिश्नोई टाइगर फोर्स. बनी हुई है जो वन्यजीवों के संरक्षण एवं शिकार रोकने का कार्य करती है। राजस्थान एवं मध्य प्रदेश सरकार वन विभाग पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान देने वाले व्यक्तियों को अमृता देवी स्मृति पुरस्कार प्रदान करती है। एक प्रशस्ति पत्र के साथ 25000‌‌ रुपए नकद पुरस्कार स्वरूप प्रदान किए जाते हैं।

 

आज दुनिया का हर इंसान प्रकृति से प्यार करेगा तो उसे प्यार प्रकृति मुफ्त में प्रदान करेगी और मनुष्य के लिए वरदान साबित होगी नहीं तो आज का मानव अपनी कब्र खोदकर खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहे। आज जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, ई-कचरा प्रदूषण, प्लास्टिक प्रदूषण, नाभिकीय या रेडियोधर्मी प्रदूषण, मोबाइल टावर से निकलने वाली विकिरणों से प्रदूषण धरती पर क्यों बढ़ रहा है, हमारा क्यों हो रहा है? हमारा पूरा का पूरा वातावरण क्यों खराब हो रहा है? यह सब मानव की वजह से ही तो हो रहा है।

 

आज विश्व कल्याण के लिए दुनिया का हर व्यक्ति संकल्पित होकर इस प्रदूषण को रोकने में कटिबद्ध हो वह समझे कि आज हमारी धरती क्यों बदल रही है जैसी होनी चाहिए वैसे क्यों नहीं है? वह जीवन में अधिक से अधिक रसायनो के प्रयोग को रोके। “ऐसा होना चाहिए हर एक का संसार,

 

मानव- मानव एक हो समता और सदाचार,

प्रकृति के संग सब हिलमिल क्यों न चालिए,

पर्यावरण हो स्वच्छ सदा, सद्विचारऐसा पालिए*।”

 

मेरी धरती पर सोना उगलता है, पर तुम क्यों बोते ज़हर? मैं तुम्हें हंसाना चाहती हूं, पर तुम अपनी करतूतों से क्यों सहते हो कहर?

 

मैं तुम्हारी प्यारी प्रकृति हूं, मुझे दुल्हन सी सजा दो।

 

मुझे आज तक समझ नहीं आया!आखिर तुम मुझे कोनसे अपराध की सजा दो। मेरे प्यारे बच्चों ! मैं हूं तो तुम हो; फिर भी मेरा नाश करते हो!

 

सोचलो ! तुम्हारी भूलों और गलतियों से मत खोदो खाई। दुनिया में हाहाकार मचेगा, तुम नहीं सुधरे तो, तुम्हें घेरेगी हर तरफ मौत की परछाई।


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