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अब तो पतझड़ में जीने की, मेरी आदत हो गई | ऑनलाइन बुलेटिन

©गुरुदीन वर्मा, जी.आज़ाद

परिचय– गजनपुरा, बारां, राजस्थान


 

 

इन बहारों में चलने की, मेरी चाहत खत्म हो गई।

अब तो पतझड़ में जीने की, मेरी आदत हो गई।।

इन बहारों में चलने की———————।।

 

 

हम भी कभी अपने घर में, जलाया करते थे चिराग।

मेरे गुलशन में भी दोस्त, कभी उड़ा करते थे पराग।।

मगर इन फिजाओं से अब , मुझको नफरत हो गई।

इन बहारों में चलने की———————-।।

 

 

इन गुलो- महफिलों से अब , रहा नहीं मुझको वास्ता।

मिट गया शौक यह मेरा, बदल गया अब मेरा रास्ता।।

मचलने की लहरों के संग, अब हसरत खत्म हो गई।

इन बहारों में चलने की———————-।।

 

 

साथ कब नहीं दिया उनका, कब नहीं की हमने इज्ज़त।

मानकर जिनको अपना अजीज ,की थी हमने मुहब्बत।।

अब तो सूरत वह देखने की, इच्छा हमारी खत्म हो गई।

इन बहारों में चलने की——————–।।


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