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जनता कुम्भकरण है | ऑनलाइन बुलेटिन

©हिमांशु पाठक, पहाड़ 

परिचय– नैनीताल, उत्तराखंड


 

 

 

मैं लिखना चाहता हूँ,

लेखनी उठाता हूँ ।

लेखनी चूमना चाहती है,

कागज पर अपने निशान,

छोड़ना चाहती है।

पर अचानक कागज और,

लेखनी के बीच,

मैं दीवार बन जाता हूँ ।

क्योंकि मैं फिर,

सोचता हूँ कि मैं क्यों लिखूँ?

क्या हो जायेगा?

मेरे लिखने से, जनता जागेगी क्या?

अरे जो सदियों से सोई है,

वो अब क्या जागेगी? क्योंकि,

जनता कुम्भकरण है।

 

अरे जो सदियों से सोई है,

उसे कौन जगा सकता है?

ऐसा नहीं है कि पहले उसे,

जगाया नहीं गया।

मेरे से पहले किसी ने,

उसे उठाया नहीं।

जिसने भी उसे उठाया,

उसे सुला दिया गया,

सदा-सदा के लिए।

और जनता जागी नहीं,

क्योंकि जनता कुम्भकरण है।

 

क्या कहा आपने?

कि मैं! समझाऊँ!

जनता को, उस जनता को,

जो सोई हुई है सदियों से,

चलिए आप कहते है

तो मैं आप की बात रख लेता हूँ,

एक और प्रयास कर लेता हूँ।

आप पर विश्वास कर लेता हूँ ।

ओ जनता ! अरे जनता,

अरे ओ जनता ! तू उठ तो,

कब से सोई हुई है तू,

और कितना सोएगी।

देख तो तम ही तम ,

छाया हुआ है यत्र, तत्र, सर्वत्र,

देख तो सत्ता छल रही है,

षडयंत्र रच रही है,

भ्रष्टाचार फल रहा है,

सत्ताधारी हो या सत्ता विहीन,

सभी माननियों के मुँह,

सुरसा की तरह खुल रहें हैं,

देश लुट रहा है,

भद्रजन लूट रहें हैं

तू कब जागेगी,

जब फिर मुगल काल आएगा,

या ब्रिटिश राज आएगा,

या फिर देश को कुचल दिया जायेगा,

तू तब जागेगी क्या?

ओ जनता! अरे ओ जनता!

तू क्यों सोई है,

मैंने कहा ना ये नहीं जागेगी,

क्योंकि जनता कुम्भकरण है।

इसका तो मुझे नहीं पता,

कि ये कब जागेगी?

जागेगी भी या नहीं !

परन्तु अब इतना तय है,

कि मैं सो जाऊँगा,

हमेशा- हमेशा के लिए।


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