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चिता की लकड़ी | Newsforum

©हरीश पांडल, बिलासपुर, छत्तीसगढ़


 

आज श्मशान में कोई चिता

नहीं जली, सुबह से शाम हो गई

दूर झोपड़े में बैठी एक बूढ़ी

की नज़रें, आखिर क्यों, तरस गई

क्यों थी, बूढ़ी व्याकुल नजरों

को, जलती चिता की आस

लोगों के दु:ख से, उसकी

पूरी होती थी, कौन सी तलाश

क्यों था उसे, जलती चिता से, स्नेह

इच्छा पूरी हुई उसकी, श्मशान में

जलाने, लाई गई एक, देह

क्रिया- कर्म पूरी हुई

चिता पर आग ढीली गई

रोते-बिलखते परिजनों के

जाने का, बूढ़ी नजरों

को इंतजार था

श्मशान के सूने हो जाने

के लिए वह बेकरार थी

वह घड़ी आ गई, सब विदा हो गए

सभी परिजन, अपने दु:खों में खो गए

अब श्मशान में, चिता जलने की आवाज थी

रात का भयानक अंधेरा, सरताज थी

साथ में, उस बुढ़िया के, चलने की आवाज थी

वह आई जलती चिता पर झपटी

और, कुछ जलती लकड़ी

उठा अपने, झोपड़े की तरफ पलटी

उसके पास, भीख में,

मांगा हुआ, चावल था

भगोने में, पानी था

किंतु, भोजन पकाने, ईंधन नहीं था

उसे इस श्मशान में कोई बंधन नहीं था

सबसे ईंधन मांगकर, वह हार गई थी

अंत में उसे

“चिंता की लकड़ी” ही नज़र आई थी

अंत में उसे

“चिता की लकड़ी” ही नज़र आई थी …


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