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सत्यमेव का पताका | ऑनलाइन बुलेटिन

©सुरेंद्र प्रजापति

परिचय- गया, बिहार.


 

 

                  

 

खामोशियों के,

कुशल साजिशों से बचो

सम्हालो, अपने होशों हवास को

बढ़ो, जाओ उस मरु भूखण्ड पर

अतीत हो चुके,

खंडहरों के प्राचीरों पर

ढूंढो, जीवन के विराट गंध

जहां, सत्यमेव का पताका

स्वार्थी आदमखोरों ने

झुका दिया है ।

 

चीर डालो,

निराशाओं के घने कोहरे को

क्योंकि-

उसी विटप सघनता में

पुरे ओजों, चंचलता के साथ

आशा की किरण, दामिनी

कौंधने वाली है बंधु

 

तुम निर्लिप्त, विवशता की

चाकरी करना छोड़ दो

जो तुम्हे बाँध रखा है

उस बेड़ियों को तोड़ दो

 

किस्मत का ढिंढोरा मत पीटो

अपने पुरुषार्थ पर

नामर्दी, कापुरुषता के दैत्यों को

हावी मत होने दो

हाहाकार करते पसीने को

गिरवी मत रखो

ईमानदार हवस की

कलाबाजियों से चौंको मत

तुम, भीषम त्रासदी में भी

कड़वी मुस्कुराहटों का बिगुल फूंको

 

ओ राष्ट्रनिर्माता, नरेश

दुनियाँ का सारा श्रम

शिल्पों में पिरोया गया

एक एक आश्चर्य

मेंरे हुनर की दास्तान है

अब अपने शिल्प में

एक एक सृजन का

मानचित्र बना रहा हूँ ।


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