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कफ़न चोर | ऑनलाइन बुलेटिन

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई

 


 

 

 

 

अचानक होने लगा, चारों तरफ़ एक शोर।

पकड़ो-पकड़ो, देखो भागा कफ़न चोर।

 

कुछ ही दूर दौड़ा था कि पकड़ा गया,

सामाजिक धुरंधरों से ही टकरा गया।

 

हर किसी ने जीभर कर ग़ुस्सा, मासूम पे निकाला,

मरा तो नहीं, पर समझो जैसे मार ही डाला।

 

लात, घूंसा, मुक्का से जीभर कर बरसात हुई,

पहले मुक्का-लात, फिर थोड़ी बात हुई।

 

दो बच्चे की ठिठुरन देख न पाया।

न समझ था वो, कफ़न उठा लाया।

 

लहूलुहान होकर भी दोहराता रहा,

हक़ीक़त से रु-ब-रु कराता रहा।

 

गुनहगार हूँ मैं, तो बेशक सज़ा दीजिये।

ज़िंदा लोगों से ज़्यादा कफ़न की ज़रूरत है मुर्दों को, तो ओढ़ा दीजिये।

ज़िंदा लोगों से ज़्यादा कफ़न की ज़रूरत है मुर्दों को, तो ओढ़ा दीजिये।

 

 

ये रचना किसी भी एक समुदाय के लिए नहीं है।

 

 


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