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अंतरंग इश्क की कहानी | ऑनलाइन बुलेटिन

©ललित मेघवाल & सविता निमेष

परिचय– चित्तौड़गढ़, राजस्थान


 

पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर आज के युवा उस पवित्र प्रेम के मर्म को भूलते जा रहे हैँ, जो कभी ब्रज की बांसुरी या रूहानी स्पर्श में मिलता था। तब वो इंतज़ार भी मीठा लगता था। जो अपने साथी के मिलने की आस में कई बरस गुजार कर भी मुरझाता नहीं था। अपने प्रेम की प्रतीक्षा में भी कुंठा का भाव नहीं था।

 

मगर आज ये प्रेम की शाख होटलों और बियर बार तक ही सिमित रह गयी हैँ। सूरत को तो छू लिया मगर सीरत नही छू पाये। फरवरी की फुहारों में एक ऐसा ही दिन आता हैँ, जहाँ मोहब्बत के नाम पर जिस्म कुचला जाता हैँ, अपनी चेष्टाओं को पूरा करने के लिये प्रेम का सहारा लेकर कई कलियों को पल्लवित होने से पहले ही उझाड़ दिया जाता हैँ।

 

किसी एक पक्ष की बात नहीं हो रही यहां दोनों ही वर्गो में यह परम्परा देखी जा सकती हैँ, हुस्न के तार छेड़ देने से वो सुकून नहीं मिल जाया करता, जो अंतरंग के तारों में मिलता हैँ। आज के युवा तो अपने साथी का इंतज़ार तक नही कर पाते। वो भी एक समय था। जब प्रेम की चिट्ठियाँ आने में कई दिन या मास लग जाते थे फिर भी आँखे उसी प्रेमिल दिल की राह देखा करती थी।

 

मगर आज की दुनिया में एक पल का भी विलम्ब हो जाये तो विश्वास तार-तार हो जाता है। मन में कुंठा और संदेह के आलावा कुछ और आता ही नही। क्या आज उस पवित्र प्रेम का अस्तित्व धूमिल हो चूका है या कही पलाश के पत्तों के नीचे अंतिम साँस ले रहा है।

 

हाँ अगर हम उस प्रेम को सींचकर पल्लवित नही करेंगे तो शायद आने वाली पीढ़ी प्रेम का मतलब संसर्ग मिलन ही समझने लगेगी। अभी तक तो पवित्र प्रेम कही न कही प्रेमिल युगल में नजर आ ही जाता है।


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