दास्तां -ए- ज़िन्दगी | newsforum

©राहुल सरोज, जौनपुर, उत्तर प्रदेश
लिखता हूं, मिटाता हूं,
अपनी दास्तां को मैं सबसे छुपाता हूं,
जुबां ख़ामोश है कि कोई इलज़ाम ना दें,
चुपचाप सहता हूं, चुपचाप बिखर जाता हूं,
कशिश सी है कोई दिल में मेरे,
जाने किस चीज़ की ज़रूरत है,
कभी गुमनाम निकल पड़ता हूं तलाश में मैं,
कभी मैं ख़ुद ही ठहर जाता हूं।
याद करता हूं, भुलाता हूं,
अपने ही आप को सताता हूं,
कोई आवाज़ गूंजती है दिल में मेरे,
क्या है, कुछ पता नहीं,
मैं हाले दिल ना समझ पाता हूं
सोचता हूं, खुद को समझाता हूं,
कभी तो मुझे करार आए,
इस दर्द के रास्ते, कोई तो दीवार आए,
मिल जाए किसी रोज एक पल का सुकून,
इसी उजलत में हर रात मैं सो जाता हूं।।