मरकर भी खुली रही आँखें | ऑनलाइन बुलेटिन
©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़
परिचय– मुंबई, आईटी सॉफ्टवेयर इंजीनियर.
पत्नी के मरने के बाद, पिता ने उठाया भार।
ममता का रूप बनकर, लुटाया बेटा पे प्यार।
पढ़-लिख हुआ बड़ा, चला अब शहर की ओर,
भूल गया वो गलियाँ, छोड़ गया गाँव की डोर।
दिन बदला महीना में, गुज़र गया साल दो साल,
ज़रूरत पड़ी जब पैसे की, आया पिता का ख़्याल,
गले मिलकर, पिता को बोला, शहर में घर बनाना है,
खेत बेच दो पिता जी, अब यहाँ नहीं ठिकाना है।
पिता ने सोचा अब हाल मेरा बदल जायेगा,
खेत बेच, पैसा दिया, पूछा शहर कब बुलायेगा।
वादा करके लौट गया, काम तो बन गया था।
अगले साल आया फिर, जब पैसा झड़ गया था।
दादा बन गए हैं पिता जी, अब जल्दी शहर बुलाऊँगा,
बहू और पोता से तुम्हारी मुलाक़ात करवाऊँगा।
मूल से ज़्यादा सूद प्यारा, पोता सुन हुआ निढाल,
घर बेच कर दिया पैसा, कहा- रखना पोते का ख़्याल।
उम्र धीरे-धीरे बढ़ती रही, अकेला बुढ़ापा काटता रहा,
कभी चीख़ता रहा तन्हाई में, तो कभी चिल्लाता रहा।
ज़रूरत और तमन्ना ने फिर किया, बेटा को मजबूर,
हाथ जोड़ कर आते ही बोला, पिता न करो मुझे दूर।
आपके पोता को बड़े विद्यालय में पढ़ाना है,
पैसे की ज़रूरत है, मेरा कोई नहीं ठिकाना है।
बेचारा पिता, झूठी झाँसा में फिर आ गया,
लाला से क़र्ज़ लेकर, बेटा को दिला गया।
समय बीता और फिर लाला माँगने लगा रक़म,
ज़मीन, घर तो बिक चुका, टूटने लगा था भ्रम।
अस्पताल जाकर, अपनी किडनी बेच आया।
जीवन बेचकर पिता, क़र्ज़, बेटा का चुका आया।
दिन-ब-दिन-दिन कमज़ोरी ने उसे झकझोर दिया,
हालात और वादों ने, उसे पूरी तरह से तोड़ दिया,
स्वर्गवास हुआ पिता का, अंत तक किया इंतज़ार,
मरकर भी खुली रही आँखें, तकती रही दीवार।
मरकर भी खुली रही आँखें, तकती रही दीवार।