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मौत का मंजर | Newsforum

©हरीश पांडल, बिलासपुर, छत्तीसगढ़


 

मौत का मंजर देख कर

भूल गए हैं हम दु:ख तमाम

याद करके परिजनों को

जिंदगी अब लग रही हराम

सता रहा है एक ही गम

मौत के उस मंजर के हमराही

हम भी हो सकते हैं

कल तक रोते थे हम

कल लोग

हमारे लिए भी रो सकते हैं

खोया है हमने अपनों को

कल हमें भी

हमारे अपने खो सकते हैं

मौत का मंजर देख कर

भूल गए हैं हम दु:ख तमाम

याद करके परिजनों को

जिंदगी अब लग रही हराम

कब कौन साथ छोड़ दें

कब किसका संबंध

मौत अपने साथ जोड़ ले

यह तो वक्त ही जाने

कौन कितना साथ देगा

यह तो कोई भी ना जाने

होंठो ने हंसना छोड़ दिया है

गमों ने रिश्ता जोड़ लिया है

आंखों ने सोना छोड़ दिया है

आंसुओं से नाता जोड़ लिया है

जाने खुशियां आयेंगी कब तक

कितनों को खो चुकेंगे जब तक

कब आयेंगी हंसी

सबके लबों तक

सभी कुछ अब हम

भूल गए हैं

मौत का मंजर देख कर

भूल गए दु:ख तमाम

याद करके परिजनों को

जिंदगी अब लग रही हराम

कब भूलेंगे इस

काले सच को

स्वप्न समझ कर

कब सुरक्षित होंगे सब

इस महामारी से बचकर

लड़ तो रहे हैं

सब कोई डट कर

जिंदगी जी रहे हैं

संभल – संभलकर

उम्मीद है कि

मौत के मंजर से

निकलेंगे सब बचकर

देखेंगे अपनों को

हम हंस- हंसकर

गुजर जाएगा एक दिन

यह मौत का मंजर

गुजर जाएगा एक दिन

यह मौत का मंजर …


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