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जब दीपक नहीं जलाओगे | newsforum

©सरस्वती साहू, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ 

 


 

 

 

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे

 

देख गहन अंधेरा है

दुर्वृत्ति का डेरा है

तमस में सारे डूब रहे

एक दूजे को चूभ रहे

फिर अपना किसे बुलाओगे

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे

 

सर चढ़कर सब बोल रहे

वाणी से विष घोल रहे

अभिमान हृदय को भेद गए

तीर कलेजा छेद गए

प्राणी कैसे जी पाओगे

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे

 

मन में न उत्साह रहा

अपनों से न प्यार रहा

वाणी के शब्द नुकीली है

आदत बनी नशीली है

तो सम्मान कहां से पाओगे

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे

 

न जननी को सम्मान दिया

न वनिता का सम्मान किया

उन्माद में सबको छोड़ गया

लालच से नाता जोड़ गया

फिर वो रिश्ते कहां से लाओगे

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे

 

घबराते हो जन को देख

भाग रहे हो रण को देख

साहस नहीं जुटाते हो

हिम्मत नहीं बढ़ाते हो

जीत कहां से लाओगे

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे

 

आंखों में लज्जा नहीं

अधरों में मुस्कान नहीं

जिह्वा पर लगाम नहीं

चाल भी तेरे सुचाल नहीं

फिर स्नेह कहां से पाओगे

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे

 

अज्ञान नींद में सोया है

आलस में नित खोया है

चाह भी मन से डूब गया

सत्य राह को चूक गया

लक्ष्य कहां से पाओगे

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे

 

तन पीड़ा को सहा नहीं

मन ईश्वर में रमा नहीं

धर्म, नीति को तोड़ गया

ज्ञान, बुद्धि को छोड़ गया

फिर शांति कहां से पाओगे

जब दीपक नहीं जलाओगे

रश्मि कहां से पाओगे …

 

 


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