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डायन | ऑनलाइन बुलेटिन

©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई


 

 

समाज का एक अजीब शब्द।

डायन सुनकर हो जाते स्तब्ध।

 

मुख पे सबके पड़ जाता है मौन,

ऐसी विपदा जिसे सुने आख़िर कौन।

 

अबला या नीच जाति का करते बहिष्कार।

डायन देकर नाम, सब करते तिरस्कार।

 

तन से नोंच कर कपड़ा, आग में जलाया जाता,

हाय ! ये कैसी नीति कौन है इसे अपनाता।

 

कालिख पोत के मुँह पे, सारा गाँव नचाते,

डायन है वो, तो फिर खौफ़ तुम क्यों नहीं खाते।

 

मजबूरी और ग़रीबी ही ने उसे तोड़ दिया,

समाज के धुरंधर ने उसे डायन बना कर छोड़ दिया।

 

प्रगती में हैं, चाँद पे घर बनाएँगे,

भला बोलो, इन सब चीजों को कब मिटायेंगे।

 

समाज पिछड़ता नहीं कभी, ऐसी कहानी रचते हैं,

पाखंडी है समाज के लोग, जो तमाशा देख हँसते हैं।

 

डायन का नाम देकर, मौत के घाट उतार दिया।

वाह रे समाज, तूने क्या ख़ूब तक़दीर सँवार दिया।

वाह रे समाज, तूने क्या ख़ूब तक़दीर सँवार दिया।


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