तुम सबल हो | ऑनलाइन बुलेटिन
©सुरेंद्र प्रजापति
परिचय– गया, बिहार.
क्यों हो बेवस, क्यों बेहाल हो
क्यों मायूस ही विलखती हो,
लज्जा वसन छीन गई, वृथा
कहो क्यों, मौन सिसकती हो।
तुम ममता, त्याग की महामूर्ति
विवश क्यों जीवन जीने में,
क्यों हार चुकी अपनी बाजी
अंतर न जला, विष पीने में।
अपने अतीत के पन्नों पर
क्यों लाचार, बलहीन हो तुम,
तुम जनक सुता सुकुमारी हो
अनुराग त्याग, तेजहीन हो तुम।
तोड़ो मौन का व्रत सज लो
चंडी, दुर्गा, भी नारी थी,
पद्मा, लक्ष्मी को दुनियां जाने
वो अद्भुत शौर्य की न्यारी थी।
तुम अबला बन आंखों में
नीर नहीं, नव अनल बसा ले,
कोमल, मधुरी, सरल वीणा पर
हो बलिदान का राग सजा ले।
वक्त नहीं अब, प्रेमिका बन
वासना में डुब उतरने की,
प्रिय बनो तुम महाजीवन का
अस्मिता की वाण बरसने की।
तुम सबल हो निर्माण सृष्टि का
माता बन अमृत, पिलाने वाली,
दिनकर से कुछ ऐसी प्रभा लो
जगमग धरती, हरसाने वाली।
तुम कांति बन इस दुनियां में
हिम शिखर पर जा सकती हो,
कुछ नई उर्मियाँ, कुछ नई कलाएं
ब्रह्मांड को दिखला सकती हो।