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Buddha के सृजन में महाप्रजापति गोतमी की ममता व त्याग अमर है…

Buddha
डॉ. एम एल परिहार

©डॉ. एम एल परिहार

परिचय- जयपुर, राजस्थान.


She did not give birth to Siddharth from her womb, but the love and sacrifice of Maha Prajapati Gotami is immortal in the creation of Buddha.

 

अपनी कोख से सिद्धार्थ को जन्म नहीं दिया था लेकिन Buddha के सृजन में महाप्रजापति गोतमी की ममता व त्याग अमर है.

 

अपनी बहन महामाया के मातृत्व के गौरव को याद करती हुई महाप्रजापति गोतमी कहती है-

 

बहूनं वत अत्थाय माया जनयि गोतमं.

अर्थात “बहुत जनों के कल्याण के लिए महामाया ने गोतम जैसे पुत्र को जन्म दिया. ”

 

“वह अपने तप से लोक में बुद्धत्व प्राप्त कर सम्यक सम्बुद्ध हुआ. दुखी लोक के कल्याण के लिए जिसने ज्ञान का दीप जलाया. जिसका जीवन खुद के लिए नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा लोगों के भले के लिए, सारे मानव जगत के हित के लिए सुख शांति का मार्ग बना. उस गोतम को महामाया ने जना. एक माता के लिए इससे अधिक गौरव की और क्या बात हो सकती हैं.”(Buddha)

 

महाप्रजापति गोतमी के यह उद्गार बहुत अनमोल है क्योंकि बुद्ध के जीवन में उन्होंने यही सबसे बड़ी बात देखी थी. इसलिए माता होते हुए भी बाद में भिक्षुणी बनकर उनकी शिष्या बनी.

 

इन मार्मिक शब्दों में गोतमी ने न सिर्फ अपनी बड़ी बहन के प्रति अद्भुत श्रद्धांजलि अर्पित की बल्कि भगवान बुद्ध के व्यक्तित्व के सबसे बड़े आकर्षण को भी उजागर किया. बुद्ध को सम्पूर्ण मानव जगत का कहकर विशाल मानवता का परिचय दिया.(Buddha)

 

प्रजापति गोतमी बहुतजनों में से नहीं थी. वह राजा शुद्धोदन की रानी थी. राजपरिवार के वंश से थी लेकिन वह जानती थी कि मानवता इसी में है जो बहुतजनों के लिए हो, सबके लिए हो, लोगों पर अनुकंपा के लिए हो.

 

दरअसल कोलिए गणराज्य के प्रधान सुप्रबुद्ध की दोनों कन्याओं का विवाह एक साथ राजा शुद्धोदन के साथ कर दिया था. माता महामाया का सिद्धार्थ को जन्म देने के सातवें दिन देहांत हो गया. शिशु का पालन पोषण प्रजापति ने ही किया.(Buddha)

 

प्रजापति के अपने इकलौते नन्हे पुत्र नंद को दासियों को सौंप दिया और अपनी बड़ी बहन के पुत्र गोतम का पालन पोषण किया. बुद्ध के निर्माण में इस देवी का महान योगदान था .और भगवान बुद्ध भी अपनी माता महापजापति के प्रति हमेशा सम्मान व आदर के साथ कृतज्ञता प्रकट करते थे.

 

राजा शुद्धोदन के देहांत के बाद गोतमी सैकड़ों स्त्रियों के साथ भिक्षुणी बनी. इनके प्रयासों से ही इतिहास में पहली बार स्त्रियों को संघ में शामिल होने का अवसर मिला और भिक्षुणी संघ की स्थापना हुई. (Buddha)

 

भिक्षुणी के रूप में भी प्रजापति ज्ञान व ध्यान साधना में बहुत गंभीर रहती थी. भिक्षुणी संघ को संभाला और संवारा.

 

वहां भी वह अपने हाथों से बुने हुए वस्त्रों को भगवान बुद्ध के लिए अर्पित करती थी. लेकिन भगवान बहुत विनम्रता से अस्वीकार करते हुए कहते थे, “माता गोतमी ! इन्हें संघ को दे दो, व्यक्तिगत दान की बजाए संघ को दिया हुआ दान अच्छा है. संघ बुद्ध से भी बड़ा है.”

 

भगवान बुद्ध भिक्षुणी प्रजापति का बहुत आदर और सम्मान करते थे. उनके बहुत वृद्ध शरीर की सुख सुविधाओं का पूरा ख्याल रखते थे. एक बार प्रजापति बीमार हो गई. संघ के नियमानुसार भिक्षु भिक्षुणियों की सेवा करने नहीं जा सकते थे लेकिन भगवान उस अवस्था में भी स्वयं ही उनकी सेवा में रहे और देशना देकर चित्त को सांत्वना देते रहे.120 वर्ष की उम्र में महाप्रजापति गोतमी ने परिनिर्वाण को प्राप्त किय… वंदन !!(Buddha)

 

सबका मंगल हो.. सभी प्राणी सुखी हो.. सभी निरोगी हो 

 

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