पुरुष दिवस | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन
©अमिता मिश्रा
रोना चाहता था वो पर जमाने ने रोने ना दिया
जिम्मेदारियों के बोझ ने फिर सोने ना दिया
बहुत कुछ हासिल करना था उसे दुनियां में
पर बिगड़ते हालातों ने ऐसा होने ना दिया
अपने शौक़, सपने सब तकिये के नीचे दबा आया
पर माँ, बहन, पत्नी की उम्मीदों को खोने ना दिया
दो वक्त की रोटी कमाने छोड़ आया था वो घर
थोड़ा और कमाने की चाहत ने घर जाने ना दिया
माँ की आँखे अब भी निहारा करती है चौखट पर
शहर के रास्तों ने गाँव की पगडंडियों पे मुड़ने ना दिया
दुःख, तकलीफ, दर्द सब छूपा रखा है सीने में
आंसुओ के सैलाब को आँखो में आने ना दिया
भूल बैठा खुद को दुनियां को याद दिलाने में
जिंदगी की उलझन ने मेरा मुझे होने ना दिया
वो पुरूष है रोना, कमजोर होना उसकी पहचान नही
बस इसी बात ने उसे किसी का भी होने ना दिया
कब तक छुपाता दर्द, कब तक सहता एक दिन खूब रोया
इतना कि फिर आंसुओ को उसने रुकने ना दिया