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मोदी के साथी नेतनयाहू फिर सत्तासीन | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

भारतमित्र, यहूदी गणराज्य इजराइल के पुननिर्वाचित प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू के प्रचार-अभियान में एक पोस्टर चमक रहा था। नरेंद्र मोदी और नेतनयाहू के गले मिलने का। आम इजराइली जानता है कि भारत ही इस्लामी अरब शत्रु राष्ट्रों से घिरे इस यहूदी देश का सच्चा मित्र है। बारह  वर्ष प्रधानमंत्री रहे नेतनयाहू गत वर्ष सत्ता से अलग हो गए थे, क्योंकि एक अरब पार्टी के सांसद ने उनके बहुमत को काट दिया था। इसी वजह से पिछले एक वोट की अल्पमत से हारे नेतनयाहू अब आम राय से बहुमत की सरकार चलाएंगे।

 

स्वतंत्र भारत के रिश्ते भी इजराइल से आज तक संशय तथा दुविधा से ग्रस्त रहे। अरब देश के तेल और भारत के मुस्लिम वोट बैंक के दबाव में इजराइल से भारत आत्मीयता रखकर भी रिश्ता प्रगाढ़ नही कर पाया। भला हो कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का जिन्होंने (29 जनवरी 1992) नई दिल्ली में इजराइली दूतावास बनवाकर उसे पूर्ण मान्यता दी थी। तब तक जवाहरलाल नेहरू (1947) से उनके नाती राजीव गांधी (1989) तक मुस्लिम वोट बैंक के आतंक के चलते इस यहूदी राष्ट्र से दौत्य संबंध नहीं बन पाए थे।

 

उस दौर में 1977 मोरारजी देसाई वाली जनता पार्टी की सरकार थी। अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे। इसराइल के विदेश मंत्री मोशे दयान दिल्ली आये थे। अगस्त माह में लुकते छिपते, छद्म वेश में। उनकी मशहूर कानी आंख सदा ढकी रहती थी, और निजी पहचान बन गई थी। पट्टी से आवृत्त थी।  मतलब यही कि कोई उन्हें पहचान तक नही सकता था। निशा के अंधेरे में मोशे दयान की अटल बिहारी वाजपेयी से दिल्ली मे गुप्त स्थान पर भेंट हुई। मोरारजी देसाई से भी मोशे दयान अनजानी जगह वार्ता हेतु मिले। पर जनता पार्टी के इस प्रधानमंत्री के कड़े निर्देश थे कि मोशे दयान से भेंट की बात पूरी तरह से रहस्य रहे। वर्ना इसराइली विदेश मंत्री से मुलाकात की चर्चा से “मेरी सरकार ही गिर सकती है।”

 

तो ऐसी दशा, बल्कि दुर्दशा थी भारत-इसराइल के संबंधों की। यहूदी सरकार से इतना भय? वह भी (उस समय के) कट्टर हिन्दूवादी अटल बिहारी वाजपेयी की हिचकिचाहट से, जो विगत कई वर्षों से संसद में विपक्षके सदस्य के नाते इसराइल के प्रतिबद्ध पक्षधर रहे थे।

 

गौर कीजिए इतना जबरदस्त दबाव था अरब शेखों का, भारत के मुस्लिम वोटरों का और सेक्युलर ढोंगियों का। हालांकि 1962 में जवाहरलाल नेहरू को चीन के आक्रमण पर, 1965 में लाल बहादुर शास्त्री को मार्शल मोहम्मद अयूब खां द्वारा हमले पर और 1971 में इंदिरा गांधी को बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष पर इसराइली सैन्य उपकरण भारतीय सेना को दिये गये थे। फिर भी इसराइल को बल्लियों दूर रखना कांग्रेसी प्रधान प्रधानमंत्रियों की कृतघ्नता थी। हिन्दूवादी अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनकर भी उसी लीक पर चले। मगर उनके पहले थोडा बदलाव लाये थे पी.वी. नरसिह्म राव (1992 में), जब इसराइली दूत को मुम्बई फिर दिल्ली में कार्यालय के लिए ठौर किराये पर दिया था।

 

नरसिह्मा राव के अलावा मोदी ही भारतीय प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इस शामी नस्लवाले यहूदी राष्ट्र से आत्मीयता दर्शायी। दुनिया में अलग थलग पड़े इस रेतीली, पथरीले इलाके को चमन बनाने वालों में भारत से गये अस्सी हजार यहूदी हैं जो केरल, गुजरात, महाराष्ट्र के थे। संकेतों की व्याख्या देखें। दोनों प्रधानमंत्रियों के कुशल क्षेम जानने और आदाबअर्ज की शैली से स्पष्ट है कि विश्व के किसी भी राष्ट्रध्याक्षाओं ने आज तक चालीस मिनट में तीन बार परिरंभण नही किया होगा। येरूशलम मे दो दिनों के प्रवास में जब भी मिले तो मोदी उनसे होली वाला आलिंगन करते रहे। नरेंद्र मोदी और नेतनयाहू ने बेन गुरियन विमान स्थल पर स्नेह की ऐसी ही प्रगाढता पेश की। समूची काबीना मंत्रालय छोड़कर एयर इंडिया के विमान की बाट जोहे था। अद्भुत है। राष्ट्रपति रेवेलिन से किसी ने पूछा कि सारे नियमों को तोड़कर पूरी काबीना विमान पत्तनम पर मोदी के स्वागत में खड़ी है? तो उन्होंने कहा: “शिष्टता महज एक औपचारिक रीति है। दोस्तों से औपचारिकता कैसी? मोदी मित्र हैं।” मोदी का “श्लोम” का उच्चारण करना दिलचस्प था। इसके हीब्रयु भाषा में अर्थ है “शुभम” और भारत में सलाम। श्लेषालंकार का मोदी ने नमूना पेश किया यह कहकर कि “इ” माने इण्डिया और “इ” माने इसराइल।

 

इजराइल के जन्म के इतिहास के परिवेश मे अरब राष्ट्रों का दुहरापन देखें। जब भारत का ब्रिटिश विभाजन कर रहे थे तो इन मुस्लिम राष्ट्रों ने जिन्ना की पाकिस्तान वाली मांग का पुरजोर समर्थन किया था। मगर उन्ही ब्रिटिश ने जब फिलीस्तीन का बंटवारा कर इसराइल बनाया तो ये सारे अरब विद्रोह कर बैठे और उसे इस्लाम पर हमला करार दिया। इन देशों का एक संगठन है आर्गेनिजेशन ऑफ इस्लामी कंट्रीज जिसमे हमेशा पाकिस्तान को भाई माना और ”हिन्दू भारत“ से दूरी रखी। इसका सम्मेलन एक बार मोरक्को की राजधानी रब्बात में हुआ था। भारत आमंत्रित नहीं था। फिर भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फखुद्दीन अली अहमद को भेजा। वहां निहायत बेअदबी से इस भारतीय मुसलमान से ये सब अरब पेश आये। जब अहमद ने सुबह गरम पानी मांगा कि दाढी बना सके, तो जवाब मिला, ”सच्चा मुसलमान दाढी रखता है। मूढता नही है।“ गरम पानी नही दिया गया।

 

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