मां | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन
©संतोषी देवी
जब कभी किसी ठेले वाले से,
या किसी दुकान से होकर गुजरती।
बच्चों के लिए कुछ न कुछ,
लेने की उत्सुकता जागती।
मुझे पता होता था,
मेरी आहट पा बच्चे दौड़े आएंगे।
मेरे हाथ में पकड़े हुए बैग निहारेंगे,
कुछ न पाकर पूछ बैठेंगे,
आज कुछ नहीं लाए।
सारे दिन भर का उत्साह,
जिज्ञासा और विश्वास।
जिसके सहारे पूरा दिन,
मेरे बगैर किसी लाग लपेट के,
फूँक सा उड़ा, गुजार दिया करते थे।
उसको टूटते देख,
मैं खुद टूट जाया करती थी।
इसलिए कुछ न कुछ,
ले आया करती थी।
चलता गया सब अच्छा, वक्त गुजरा।
वक्त के साथ बच्चों के नए साथी,
नया स्कूल,
उन तक पहुंचने के लिए,
गुजरते बाजार की चकाचौंध।
मेरा लाया कुछ भी अब,
रास नहीं आता बच्चों को।
एक दिन बच्चों के मुँह से ,
सुनने में आया,
आपको कुछ लेना नहीं आता।
आप मत लाया करो,
बस पॉकेट मनी दिया करो।
यहां तक भी ठीक-ठाक,
बच्चे कहने लगे,
हम ही अपनी इच्छा का लाया करेंगे।
छोड़ दिया कुछ लाना,
यह सोचकर अब मेरी आहट पर,
कोई नहीं दौड़ेगा।
लेकिन कब तक रास आती है,
बनावट।
बच्चे खुद ही खुद से ऊबने लगे।
अपने मन चाहे स्वाद से।
लालायित होने लगें,
माँ कुछ भी लाये पर लाये जरूर।
कब तक मुझे उत्तर नहीं मिलता,
जिस ममतामयी स्वाद को,
मैं आज तक नहीं भूल पाई,
बच्चे कैसे भूल सकते हैं।
जल्दी ही मेरी ममता,
बल्लियों उछली।
बच्चों के मुंह से यह कहते सुना,
मां पता नहीं, तुम थोड़ा ही लाती थी।
लेकिन जो तुम्हारे हाथ से दिया होता है,
उसका अलग ही स्वाद हुआ करता है।
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