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औरंगजेब पर विजयी असमिया वीर की 400वीं जयंती पर | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

    ड़कवासला (पुणे) के नेशनल डिफेंस अकादमी में हर साल श्रेष्ठतम कैडेट को मेडल दिया जाता है। नाम है “लाचित पदक।” कौन यह लाचित ? इतिहास को विकृत करने में माहिर मियां सैय्यद मोहम्मद इरफान हबीब नहीं बताएँगे। जवाब टाल देंगे। इतिहास गवाह है कि मुगल बादशाह मोहिउद्दीन मोहम्मद औरंगजेब आलमगीर को इस अदम्य सैनिक ने हराया था। असमिया अहोम सेना के इस सिपाह-सालरे-आजम (बड़फूकन) चाऊ लाचित फुकुनलुंग ने महाबली मुगल सेना को सराईघाट की जंग में (1671) पराजित किया था। तब आमेर के महाराजा जयसिंह के पुत्र राजा रामसिंह को औरंगजेब ने पूर्वोत्तर को मुगल साम्राज्य से मिलाने हेतु बड़ी सेना के साथ भेजा था।

 

साढ़े चार सदियों पूर्व औरंगजेब के मुसल्लाह फौजी गुवाहाटी में मैदान छोड़कर भागे थे। खदेड़े गए थे। परास्त हुए थे। अगर लाचित कहीं अवध और ब्रज में होते तो ? ज्ञानवापी, (काशी) और केशवदेव (कृष्ण जन्म भूमि, मथुरा) आस्था स्थल मुगलिया बादशाह की नृशंसता से बच जाते। कामरूप पूजा स्थलों को लाचित की सेना ने बचाया था। ब्रह्मपुत्र इसका गवाह है। उसी के तट पर लाचित की शौर्य गाथा लिखी गयी थी।

 

किस्सा दिलचस्प है। औरंगजेब दक्षिण में हारता रहा। छत्रपति शिवाजी भोंसले से मात खाता रहा। तब उसने मराठा नरेश शंभाजी के विरुद्ध चली चाल थी। औरंगजेब का बेटा अकबर रुष्ट होकर शिवाजी के पुत्र शंभाजी के शरण में चला गया। शातिर बादशाह ने अपनी (सम्राट की) मुहर लगाकर शहजादा अकबर को खत भेजा। लिखा था कि ऐन वक्त पर शंभाजी को छोड़कर आ जाना। मगर पत्र जानबूझ कर शंभाजी के हाथों पड़वा दिया। मराठा वीर को संदेह हो गया। ठीक वैसी ही कुटिल दांव मुगल ने लाचित के खिलाफ भी चला था। औरंगजेब के सेनापति राणा रामसिंह ने किया। उसने एक पत्र राजा के नाम भेजा। इसमे लिखा था कि एक लाख की रकम रिश्वत के तौर पर लाचित को दी गयी है। झूठ पकड़ी गयी।

 

असम नरेश राजा चक्रध्वज सिंह समझ गए यह पत्र फरेब हैं। उन्होंने स्वयं लाचित को सेनापति नामित किया था। राजा ने उपहार स्वरूप लाचित को सोने की मूठवाली एक तलवार (हेंगडांग) और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र भी प्रदान किए थे। लाचित ने सेना संगठित की और 1667 की गर्मियों तक तैयारियां पूरी कर लीं गईं। उन्होंने मुगलों के कब्ज़े से गुवाहाटी पुनः प्राप्त कर लिया और सराईघाट की लड़ाई में वे इसकी रक्षा करने में सफल रहे। सराईघाट की विजय के लगभग एक वर्ष बाद प्राकृतिक कारणों से लाचित बड़फुकन की मृत्यु हो गई। उनका शव जोरघाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वारा सन 1672 में निर्मित लाचित स्मारक में रखा है। लाचित बड़फुकन का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक पुराना इतिवृत्त उनका वर्णन इस प्रकार करता है : “उनका मुख चौड़ा है और पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह दिखाई देता है। कोई भी उनके चेहरे की ओर आँख उठाकर नहीं देख सकता।”

 

हल्दीघाटी पर तो काफी लिखा गया। बताया गया, मनाया गया। पर इतिहासवेताओं ने इस सराईघाट युद्ध का उल्लेख पर्याप्त नहीं किया। जबकि बाबर के पानीपत और औरंगजेब के सराईघाट में बड़ा अंतर है। दोनों ने इतिहास की दिशा मोड़ दी थी। यदि तब मुगल जीत जाते तो असम सदियों पूर्व इस्लामी बन जाता। पड़ोसी बांग्लादेश से पहले।

 

एक घटना और। सराईघाट की लड़ाई के अंतिम चरण में, जब मुगलों ने नदी की ओर से आक्रमण किया था, तो असमिया सैनिक लड़ने की इच्छा खोने लगे। कुछ सैनिक पीछे हट गए। यद्यपि लाचित गंभीर रूप से बीमार थे, फिर भी वे नाव में सवार हुए और सात नावों के साथ मुग़ल बेड़े की ओर बढे। उन्होंने सैनिकों से कहा, “यदि आप भागना चाहते हैं, तो भाग जाएं। महाराज ने मुझे एक कार्य सौंपा है और मैं इसे अच्छी तरह पूरा करूंगा। मुगलों को मुझे बंदी बनाकर ले जाने दीजिए। आप महाराज को सूचित कीजिएगा कि उनके सेनाध्यक्ष ने उनके आदेश का पालन करते हुए अच्छी तरह युद्ध किया। असमिया सैनिक लामबंद हो गए और ब्रह्मपुत्र नदी तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लाचित बड़फुकन विजयी हुए। मुगल सेनाएं गुवाहाटी  से पीछे हट गईं। मुगल सेनापति ने अहोम सैनिकों और सेनापति लाचित बोड़फुकन के हाथों अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखा,  : “महाराज की जय हो ! सलाहकारों की जय हो! सेनानायकों की जय हो! देश की जय हो! केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है ! यहां तक कि मैं, राम सिंह व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूंढ सका।”

 

इस युद्ध के बाद फिर कभी उत्तर-पूर्वी भारत पर किसी ने हमला करने का सपने में भी नहीं सोचा। खासकर औरंगजेब को लाचित बड़फूकन की ताकत का अंदाजा हो गया था। मुगल सेना की भारी पराजय हुई। लाचित ने युद्ध तो जीत लिया पर अपनी बीमारी को मात नहीं दे सके। आखिर सन् 1672 में उनका देहांत हो गया। भारतीय इतिहास लिखने वालों ने इस वीर की भले ही उपेक्षा की हो, पर असम के इतिहास और लोकगीतों में यह चरित्र मराठा वीर शिवाजी की तरह अमर है।

 

आज पूरा असम लाचित की जीत का जलसा मना रहा है। मुख्यमंत्री हेमंत विश्वकर्मा शामिल हैं, गुजरात में चुनाव अभियान के बावजूद। गत 25 फरवरी को गुवाहाटी में इस 17वीं शताब्दी के वीर योद्धा अहोम सेनापति की 400वीं जयंती समारोह की शुरुआत करायी गयी। कृतज्ञ राष्ट्र ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के द्वारा सालभर का समारोह शुरू किया था। इस 400वीं जयंती पर आज गुवाहाटी में अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियां और एक प्रदर्शनी भी आयोजित की गयी। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 25 नवंबर को बड़फुकन को श्रद्धांजलि देते हुए एक पुस्तक राष्ट्र को समर्पित करेंगे। वहीं अमित शाह लाचित पर एक डोक्यूमेंट्री फिल्म की स्क्रीनिंग का उद्घाटन करेंगे। असम के सीएम विश्वशर्मा ने संवाददाताओं से कहा कि अनेक क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय टेलीविजन चैनलों पर बाद में फिल्में दिखाई जाएगी। मगर औरंगजेब के जुल्मों का पूरा खात्मा काशी-मथुरा में हो तभी उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।

 

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