न कोई पराया। कहीं धूप तो कहीं छाया। बात अंतिम संस्कार पे ठहर गयी। कभी श्मसान कभी क़ब्रिस्तान पे नज़र गयी। मज़हब का खेल खेला जाने लगा। गेरुआ और हरा रंग ढूँढा जाने लगा। झगड़ा लगातार बढ़ता गया

Back to top button