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क्या थे वे दिन, गीतमाला वाले | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

-लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

 

      न दिनों अमूमन अखबारों के दफ्तर में देर शाम फोन की घंटी बजती थी (तब मोबाइल नहीं जन्मा था), तो अंदेशा होता था कि “कुछ तो हुआ होगा।” मसलन ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु (तड़के तीन बजे), जान कैनेडी की हत्या (आधी रात), याहया खान द्वारा भारतीय वायुसेना स्थलों पर बांग्लादेश युद्ध पर प्रथम रातवाला हवाई हमला, इत्यादि। उस रात (दिसम्बर, 1966) में मुंबई “टाइम्स ऑफ इंडिया” दफ्तर में अचानक फोन की घंटी बजी। तीसरी मंजिल के रिपोर्टर कक्ष में बैठा, मैंने फोन उठाया। कोई पूछ रहा था : “सिटी डायरी” के लिए फलां कार्यक्रम भेजा था, छाप दीजिएगा।” खोजकर मैने उन्हे बताया कि आइटम दे दिया है।

 

उधर से वह व्यक्ति अपना नाम बताने ही वाला था कि बीच में मैंने टोका। कह दिया : “आपको कौन नहीं पहचानता ? आपकी आवाज ही आपकी पहचान है” ! वे थे अमीन सयानी। कल (22 दिसंबर 2022) उनका 90वां जन्मदिन है। उनकी दिलकश वाणी सुनकर ही मेरी स्कूली पीढ़ी वयस्क हुई थी। तभी रेडियो सीलोन पर बिनाका गीतमाला शुरू हो गई थी। बुधवार की शाम हुई कि आठ बजते बजते रेडियो से सभी कान सटाकर बैठते थे। हिंदुस्तान ठहर जाता था। “भाइयों और बहनों,” “अमीन सयानी……।” उनकी उद्घोषणा का अंदाज भी निराला था।

 

मानो श्रोता के सामने बैठकर संवाद कर रहे हों। बीन बजा रहे हों ! उस दौर में फिल्मी गीतों की लोकप्रियता भी खूब थी। कारण था कि नवस्वतंत्र भारत सरकार की रेडियो नीति। सूचना और प्रसारण मंत्री थे उत्तर प्रदेश में बसे मराठी विप्र डॉ बालकृष्ण विश्वनाथ केसकर जो शास्त्रीय संगीत को ही सब कुछ मानते थे। फिल्म संगीत को वे अपसंस्कृति समझते थे, बाजारू !

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वह पूर्णतया प्रतिबंधित था रेडियो पर। डा. केसकर दस वर्ष नेहरू सरकार के सूचना मंत्री रहे। आलमगीर औरंगजेब से वे थोड़ा ही बेहतर थे। इस मुगल बादशाह ने तो संगीत कला को ही दफना दिया था। उनके मजहब की प्रथा के अनुसार। मगर डॉ केसकर शास्त्रीय संगीत के पक्षकार तथा कट्टर प्रचारक रहे।

 

उनके मददगारों में ठा. जयदेव सिंह, वाणीबाई राम जैसे अफसर थे। मंत्रीजी की दृढ़ मान्यता थी कि फिल्मी गानों से जनरुचि ओछी, हरजाई टाइप होती है। नतीजा वही हुआ। जिसे जितना दबाया जाता है वह उतना ही उछलता है, रबड़ की गेंद की मानिन्द। फिल्मी म्यूजिक भी।

 

अतः लाजमी है कि रेडियो सीलोन का फिल्मी प्रोग्राम अपार सफलता पा गया। प्रारंभ हुआ 3 दिसंबर 1952 को, सात गानों की सीरीज का पहला शो रिले किया गया था। काफी कामयाब रहा। एक साल के भीतर अमीन सयानी के कोलाबा ऑफिस में हर हफ्ते 65,000 चिट्टियां आने लगीं। बाद में इस शो में गानों की संख्या सात से बढ़कर 16 हो गई। बुधवार को प्रसारित होने वाले इस शो के लिए पिछले शनिवार को ही रिकॉर्डिंग की जाती थी।

 

सन 1952 में आई हिंदी फिल्म “आसमान” का गाना “पोम पोम बाजा बोले” काफी मशहूर हुआ। इसे ओपी नय्यर द्वारा ट्यून किया गया है। ये “जिंगल बेल, जिंगल बेल” पर आधारित है। गीत माला की यही सिग्नेचर ट्यून थी। पायदानों पर गीत का स्थान तय कौन करें ? इसकी पद्धति निर्धारित थी। शो में कौन से गाने जाने चाहिए ? इसके लिए देशभर के प्रमुख रिकॉर्ड डीलरों से रिपोर्ट मांगी जाती थी।

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पहले दो दशकों तक नौशाद अली, सी. रामचंद्र, हेमंत कुमार, रोशन और मदन मोहन साप्ताहिक हिट परेड में प्रमुखता से शामिल रहे। वहीं 1960 के दशक में शंकर-जयकिशन, ओपी नय्यर और एसडी बर्मन आए। फिर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी और आरडी बर्मन ने उनकी जगह ले ली।

 

प्रसिद्ध लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जोड़ी के प्यारेलाल ने कहा : “मैं और लक्ष्मीभाई दोनों बिनाका गीतमाला के प्रबल प्रशंसक थे। मुंबई के रिकॉर्डिंग स्टूडियो में जूनियर संगीतकार के रूप में संघर्ष करते हुए, हमने एक दिन का सपना देखा था जब हमारे गीत गीत माला चार्ट-बस्टर होंगे।”

 

यूं पहले दिन से ही विज्ञापनों के मार्फत रेडियो सीलोन पर धन बरसना शुरू हो गया था। उसके पूर्व तक अमीन सयानी का साप्ताहिक परिश्रमिक केवल 25 रूपये थे। उस वक्त आठ आने सेर शक्कर बिकती थी। चावल एक रुपये सेर। उन्होने वह भी जमाना देखा जब वे आकाशवाणी के हिन्दी प्रभाग के लिए ऑडिशन देने गए थे।

 

उनसे कहा गया कि उनके उच्चारण में अंग्रेजी और गुजराती का आभास आता है। मगर वे हतोत्साहित नहीं हुये। उन्होने कई विदेशी रेडियों कार्यक्रमों के लिए भी अपनी आवाज दी है। वह अब तक बढ़ते गये वो 50 हजार से ज्यादा कार्यक्रमों और करीब 20 हजार जिंगल कर चुके है। सन 1992 में उन्हे लिमका बुक ऑफ रिकॉर्ड ने “पर्सन ऑफ द ईयर” के खिताब से उन्हे नवाजा गया।

 

उन्हे पद्मश्री से 2009 में सम्मानित किया गया। रेडियो का पर्याय वे बन गये थे। भाग्य देखिये कभी वे गायक बनना चाहते थे, लेकिन बाद में जाने-माने ब्रॉडकास्टर हो गए। उनकी मान्यता है कि अच्छी हिन्दी बोलने के लिए थोड़ा-सा उर्दू का ज्ञान भी ज़रूरी है।

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