क्योंकि बाबासाहेब Ambedkar के पास इतने पैसे नहीं थे…


©डॉ. एम एल परिहार
Rich in knowledge and talent, intellectually rich, Babasaheb struggled with financial difficulties throughout his life. But that self-respecting great man never let him realize.
ज्ञान व प्रतिभा के धनी, बौद्धिक रूप से अमीर बाबासाहेब जीवन भर आर्थिक मुश्किलों से जूझते रहे. लेकिन उस स्वाभिमानी महामानव ने कभी एहसास नहीं होने दिया.(Ambedkar)
वे बहुत कम उम्र से ही आर्थिक, सामाजिक व धार्मिक विषयों पर इंग्लिश में एक के बाद एक बेहतरीन किताबें लिखते जा रहे थे और देश विदेश के पब्लिशर भी उन्हें छाप देते थे.
मुंबई की ठाकर एंड कंपनी पब्लिशर ने उनकी कुछ किताबों को प्रकाशित किया था. जब बाबासाहेब कार से उनकी शॉप पर जाते थे और जो रॉयल्टी मिलती थी उससे कई गुना ज्यादा की किताबें खरीद लेते थे, तीन जने उठाकर उन किताबों को कार में रखते थे.(Ambedkar)
उन दिनों देश के कुछ ही शहरों के गिने चुने प्रकाशक ऐसी किताबें छापते थे इसलिए हर किताब को छपवाना बहुत मुश्किल था.और किताब छपना बहुत बड़ी बात होती थी. Annihilation of caste (जात पात का विनाश) यह किताब तो उन्हें इतनी जरूरी लगी कि इधर उधर से रुपयों की व्यवस्था कर खुद ने ही छपवाया, हाथों हाथ बिकी. फिर इंग्लिश के पब्लिशर ने छापा तो कुछ ही दिनों में बड़ी संख्या में बिक्री हुई.
बाबासाहेब ने 1951 से बौद्ध ग्रंथों के विशाल भंडार को पढ़कर पांच साल की अथक मेहनत के बाद सार के रूप म ‘बुद्ध और उनका धम्म’ जैसी महान कृति की रचना की. लेकिन कोई पब्लिशर छापने को तैयार नहीं हुआ. डॉ अंबेडकर नेहरू मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके थे इसलिए उन्होंने नेहरूजी से आर्थिक मदद करवाने के लिए आग्रह किया ताकि यह ग्रंथ उनके जीते जी छपकर समाज के बीच आ जाए लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली. (Ambedkar)
उनका सपना था कि यह ग्रंथ भारत के घर घर में पहुंचे और करुणा के सागर बुद्ध के मार्ग पर चलें, फिर से बुद्ध की वाणी गुंजायमान हो लेकिन उनका सपना पूरा नहीं हो सका और आखिर यह ग्रंथ उनके परिनिर्वाण के बाद ही पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी द्वारा पब्लिश हो पाया. उनकी कई किताबें बाद में छपी.
कहने का अर्थ यह है कि उस समय कई विद्वानों की महत्वपूर्ण किताबें धन की कमी व प्रकाशकों की मनाही के कारण समाज में नहीं आ पाती थी और समाज उन महान मानवतावादी विचारों से वंचित रह जाता था.(Ambedkar)
लेकिन आज देश में दलित समाज में कई प्रकाशक समाज, संस्कृति, बुद्ध, धम्म व महापुरुषों आदि पर समाज को दिशा देने वाली किताबें निरंतर प्रकाशित कर उचित मूल्य पर उपलब्ध करा रहे हैं. किताबें विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम है. इसलिए दलित वंचित समाज व संस्थाओं को चाहिए कि वे भव्य आयोजनों व बाबासाहेब की महंगी मूर्तियों पर अंधाधुंध धन खर्च करने की बजाय उनके साहित्य को प्रकाशित करें या जो प्रकाशित कर रहे हैं उनको समाज में तेजी से फैलाएं.
यह कहना सिर्फ बहानेबाजी है कि ‘लोग पढ़ते नहीं है’ . हालात उल्टे है, देश में इस समय बुद्ध, कबीर, रैदास, फुले, बाबासाहेब जैसे महापुरुषों को बहुत पढ़ा जा रहा हैं. दूसरों की आलोचना किए बिना शांति से इनकी विचारधारा के प्रचार का बहुत अनुकूल समय है. उपजाऊ खेत खाली हैं सिर्फ बीज बोना है. इसलिए व्यक्ति, परिवार व संस्थाएं बड़ी मात्रा में ऐसा साहित्य प्रकाशित कर दान भेंट करें और बहुजन समाज की सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धाम्मिक जागृति व खुशहाली द्वारा बाबासाहेब के कारवां को आगे बढ़ाएं.(Ambedkar)
भवतु सब्बं मंगलं….सबका मंगल हो..सभी प्राणी सुखी हो
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