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धम्मपदं- अत्त दीपो भव अर्थात अपने लिए एक सुरक्षित द्वीप बना लो.. | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

डॉ. एम एल परिहार

©डॉ. एम एल परिहार

परिचय- जयपुर, राजस्थान.


 

उट्टानेनप्पमादेन, सञ्जमेन दमेन च।

दीपं कयिराथ मेधावी, यं ओघो नाभिकीरति।।

 

मेधावी मनुष्य को अपने उत्थान (प्रगति) से, अप्रमाद (सावधानी) से, संयम तथा इंद्रियों के दमन से साधना करके ऐसा सुरक्षित द्वीप बना लेना चाहिए जिससे उसको कोई सांसारिक बाढ़ न डुबा सके।

 

तथागत कहते हैं- मेधावी (प्रज्ञावान) व्यक्ति को मन के विकारों की ओघ (बाढ़) में बहने से बचने के लिए सुरक्षित द्वीप बना लेना चाहिए। यह कोई साधारण बाढ़ नहीं होती है। यह मन और इंद्रियों की बाढ़ होती है।

 

संसार में मनुष्य चारों ओर से भौतिक चकाचौंध से घिरा रहता है। जो व्यक्ति और वस्तु मिलते हैं वे उसे प्रिय और अप्रिय भी लगते हैं, उनमें हानि-लाभ भी नजर आता है, व्यक्ति और वस्तुएं अनुकूल और प्रतिकूल भी मिलती है। इन सबसे प्रभावित होकर मन में अच्छी-बुरी प्रतिक्रियाएं होती हैं।

 

मनुष्य राग-द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिंता, शोक, घृणा, दुख की बाढ़ में बह जाता है। इसलिए इन विकारों को नष्ट कर अपने लिए ऐसा द्वीप बनावें, जिसे बाढ़ डुबो सके।

 

मन, वाणी और शरीर के अकुशल कर्मों की बाढ़ से बचने के लिए द्वीप बना लो जो व्यक्ति अपने आपको उत्साह, उद्यम, परिश्रम, अप्रमाद से, संयम और दमन से अपने को ऊपर उठा लेता है, वह अपने लिए ऐसा ही सुरिक्षत स्थान द्वीप बना लेता है जिसको किसी भी तरह की बाढ़ चपेट में नहीं ले सकती।

 

जिस प्रकार ऊंचाई पर बने हुए घर को बाढ़ कुछ नहीं बिगाड़ सकती, इसी प्रकार यदि हम उद्यमशील है, सावधान है, जाग्रत है, मन वश में है, संयमी और इंद्रियों पर विजयी है, तो चित्त की समता का एक सुरक्षित सुदृढ़ द्वीप बन जाता है, जिसमें रहने से साधक किसी प्रकार विचलित नहीं होता।

 

राग-द्वेष से मुक्त, व्यक्ति या वस्तु से कोई मोह, आसक्ति न हो, ऐसा अनासक्त चित्त की ऊंचाई वाला सुरक्षित द्वीप है, मजबूत किला है जिसे कोई तोड़ नहीं सकता। मन पर संयम रहता है, मन काबू में रहता है और इंद्रियां वश में रहती है तो ऐसे चित्त वाले साधक को किसी भी तरह की सांसारिक बाढ़ प्रभावित नहीं कर सकती।

 

तथागत कहते हैं- अत्त दीपो भव अर्थात अपने लिए स्वंय एक सुरक्षित द्वीप बना लो, ताकि समुद्र में उठने वाले भयंकर तूफान भी ऐसे सुदृढ़ द्वीप का कुछ नहीं बिगाड़ सके।

 

उद्यम (प्रयास, परिश्रम) से ही लाभ मिलता है जितने अधिक प्रयास उतना ही अधिक सुफल मिलता है। अपनी इंद्रियों को संयम रखे बिना सफलता नहीं मिल सकती।

 

यदि हम मन, रूप, शब्द, गंध, रस आदि के सुख में ही लिप्त हो जाए तो मन एकाग्र नहीं होगा, मन पर नियंत्रण नहीं होगा और परिणाम भी बुरे ही मिलेंगे, सफलता हासिल नहीं होगी।

 

धम्म में सफलता के लिए संयम जरूरी है क्योंकि राग-द्वेष-मोह की तृष्णा हमें ही मिटानी होगी। स्वयं अपने ही प्रयासों से विकारों को मिटाकर अपना द्वीप स्वयं अपने को बनाना होगा। तथागत तो सिर्फ मार्ग बताते हैं चलना तो हमें ही पड़ेगा।

 

सबका मंगल हो …सभी प्राणी सुखी हो

 

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