मन का मंदिर | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

©दीपाली मिरेकर
भटक रहा है मन
तड़प रहा है मन
कलयुग के जाल में
उलझ रहा है जीवन।
आत्मशांति की तलाश में
अन्धकार के मायाजाल में
खो गया है मन।
दौड़ रही हैं ज़िंदगी
ना जानें किस पथ पर
पीठ पर आधुनिकता का
चाबुक है चल रहा
सब चलते ही है ,जा रहे
जीवन के अज्ञात लक्ष्य पर।
प्रेम का पाठ पढ़ाने कृष्ण न आयेंगे
धर्म का पाठ पढ़ाने राम न आयेंगे
भक्ति की शक्ति की ज्योत जगाने
हनुमान न आयेंगे
धर्म कर्म से भिन्न संसार
हो गया है जन्म मरण के
रहस्य से विशिप्त।
कलयुग के माया जाल में
सज्जन हो रहे पीड़ित,
तांडव मचा रहा
दुर्जन का देत्त्य अवतार
आ जाओ अब तो
हे मेरे पालनहार परमेश्वर!
मन का मंदिर है अन्धकार से घिरा हुआ।
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