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हैं क्या ऐसे भारतीय जो कश्मीर को अपना नहीं मानते ? | ऑनलाइन बुलेटिन

के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

 

कश्मीर संबंधी संवैधानिक अनुच्छेद 370 खत्म हो जाने (5 अगस्त 2019) के बावजूद तीन वर्षों बाद भी दो कारणों से यह विषय चर्चित हो गया है। पहला तो कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की ‘‘भारत जोड़ो पद यात्रा” से। कन्याकुमार से चली इस यात्रा का अंत श्रीनगर में होगा। तो क्या राहुल वहां इस अनुच्छेद 370 की पुनर्स्थापना की आवाज उठा सकते हैं ? कांग्रेस पार्टी ने (6 अगस्त 2019 को) अपनी कार्यकारणी की बैठक में कहा था: ‘‘कांग्रेस मोदी-सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य के विघटन की घोर निंदा करती है।” उसके शीर्ष नेता और सांसद दिग्गी राजा दिग्विजय सिंह ने (12 जून 2021: क्लबहाउस वार्ता में)कहा भी था कि ‘‘सत्ता पर आते ही उनकी कांग्रेस पार्टी अनुच्छेद 370 पर फिर से विचार करेगी।” क्लब हाउस में उपस्थित श्रोताओं में एक पाकिस्तानी पत्रकार भी था। डा. फारूख अब्दुल्ला ने दिग्विजय सिंह के बयान का तुरन्त स्वागत भी किया था। दिग्विजय सिंह ने इस विवादित वक्तव्य में कहा था कि ‘‘कश्मीर में अब लोकतंत्र नहीं रहा।‘‘

 

अनुच्छेद 370 पर दूसरा अहम बयान दिया था कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री तथा पूर्व केन्द्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद ने। गत रविवार (11 सितम्बर 2022) को आजाद ने उत्तरी कश्मीर के बारामूला शहर में एक जनसभा में घोषणा की थी कि: ‘‘मैं अपने राजनीतिक एजेंडे में अनुच्छेद 370 को बहाल करने का वादा नहीं किया है, क्योंकि मैं झूठे वायदे नहीं करता हूं।” आजाद ने अपने भाषण में अत्यन्त साफगोयी से ऐलान किया था कि: ‘‘अनुच्छेद 370 को बहाल कराने के लिए लोकसभा में लगभग 350 वोट और राज्यसभा में 175 वोटों की आवश्यकता होगी। यह एक संख्या है जो किसी भी राजनीतिक दल के पास नहीं है या कभी भी मिलने की संभावना भी नहीं है। कांग्रेस 50 से कम सीटों पर सिमट गयी है और अगर वे अनुच्छेद 370 को बहाल करने की बात करते हैं, तो वे झूठे वादे कर रहे हैं। (राष्ट्रीय सहारा: 12 सितम्बर 2022)।”

 

गुलाम नबी आजाद बारामूला में पीर सैय्यद जाबाज वली की मजार पर गये थे। बारामूला का ऐतिहासिक नाम वराह (शूकर) मूल (चर्वण दंत) को मिलाकर गठित शब्द का अपभं्रश है। यूं 31 अक्टूबर 1952 से 31 अक्टूबर 2019 तक यह अनुच्छेद लागू रहा। संसद के दोनों सदनों ने दो तिहाई बहुमत से (5 अगस्त 2010) इसे निरस्त कर इस हिमालयी प्रदेश को भारतीय गणतंत्र में पूर्णतया सम्मिलित कर दिया गया था।

 

मगर एक त्रासदी रही भारत के प्रचार तंत्र में। इस हिमालयी वादी के भारत से जुड़ाव के विषय में देश-दुनिया को पूर्णतया अवगत नहीं कराया गया। खुद कई भारतीय राजनेता भी अनभिज्ञ रहे। मसलन यह अनुच्छेद 370 है क्या बला या बवाल ? जब जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर उनके इस पारिवारिक प्रदेश पर संविधान सभा में बहस हो रही थी तो इसका जमकर विरोध किया था सैय्यद फजलुल हसन उर्फ हसरत मोहानी ने। विचार से मार्क्सवादी और स्वाधीनता सेनानी व शायर, इन्हीं ने ‘‘इन्कलाब जिंदाबाद” का नारा रचा था। वे ही प्रथम कांग्रेसी थे जिन्होंने अहमदाबाद में 1921 में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में ‘‘पूर्ण स्वराज” की मांग उठायी थी। तब तक कांग्रेस केवल असहयोग सत्याग्रह द्वारा गुलाम भारत के लिये औपनिवेशिक स्वराज्य की मांग करती थीे। बाद में यह पूर्ण स्वराजवाली मांग लाहौर अधिवेशन में (दिसम्बर 1929) उठायी गयी थी।

 

इन्हीं हसरत मोहानी ने अनुच्छेद 370 का संविधान सभा में जोरदार विरोध किया था। हसरत साहब इस्लामी पाकिस्तान के कट्टर विरोधी रहे। डा. भीमराव अम्बेडकर अंत तक इस अनुच्छेद 370 के विरोधी रहे। डा. राममनोहर लोहिया ने इस निर्णय जिसे रखा था जवाहरलाल नेहरू ने, की पुरजोर मुखालफत की थी। हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बैरिस्टर निर्मलचन्द्र चटर्जी इसे कतई नहीं चाहते थे। हालांकि उनके ही पुत्ररत्न रहे कम्युनिस्ट सोमनाथ चटर्जी जो लोकसभा के अध्यक्ष थे। स्वयं कांग्रेसी सांसद डा. कर्ण सिंह (महाराजा कश्मीर हरि सिंह के पुत्र) ने नेहरू से सवाल भी किया था: ‘‘अगर जम्मू-कश्मीर मंें हमें एक ही आदमी से संबंध रखना है तो, जब शेख अब्दुल्ला नहीं रहेंगे तो क्या होगा ? प्रधानमंत्री मौन रहें। जब मोहम्मद अली जिन्ना ने अफ्रीदी कबाइली लोगों को कश्मीर हथियाने घुसाया था तो उनका नारा था: ‘‘असि गद्दी आसुन पाकिस्तान। बटव रोस तु बटन्यव सान।” अर्थात ‘‘हमे पाकिस्तान चाहिये, कश्मीरी हिन्दु पुरूषों से रहित। मगर कश्मीर बटनियों के साथ।” (बटनी मतलब स्त्री)। महाराजा कश्मीर ने संधी हस्ताक्षर कर समूचे जन्मू-कश्मीर का भारत में विलय करा दिया था। तब गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन को पत्र में भी उन्होंने यही बात लिखी थी। मगर नेहरू सरकार ने उसमें यह जोड़ दिया कि: ‘‘आक्राताओं को भगा दिया जाये। फिर कश्मीर के भारतीय संघ में समावेश हेतु जनता से पूछकर तय किया जायेगा।” यह बात कश्मीर में कोइ भी नहीं चाहता था। अथवा मांग भी नहीं रखी गयी थी।

 

कश्मीर में तब तक अलग संविधान की बात ही नहीं थी। शेख अब्दुल्ला ने यह तथ्य लिखा भी था। राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद इसके साक्षी थे। अतः कश्मीर संबंधित अनुच्छेद 370 जवाहरलाल नेहरू की भारत की भेंट रही।

 

हाल ही में जवाब दिया महबूबा मुफ्ती ने कि अनुच्छेद 370 हटाने से अब घाटी में तिरंगा छूनेवाला कोई नहीं मिलेगा। राहुल गांधी को कश्मीर पहुंचने पर इस दावे की जांच होनी चाहिये। तभी भारत को वे ठीक से जोड़ पायेंगे। वे तिरंगा लहराते श्रीनगर पहुंच रहे हैं।

 

 

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