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ऐसा चाहू राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न; छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

राजेश कुमार बौद्ध

©राजेश कुमार बौद्ध

परिचय- संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश


 

       I want such a rule, where everyone gets food; Young and old, all settled together, Raidas remained happy. देखते हैं कि रविदास की प्रवृत्तियां क्या है? रविदास शुरू में ही कहते हैं-

 

चारों वेद करै खंडौति,

जन रविदास करै दंडौति।

 

यानि रविदास को दंडवत वही करें, जो वेदों का खंडन करें। वेदों को नकार कर ही रविदास को स्वीकार किया जा सकता है। वे राम के भक्त भी नहीं है और न सेवक,वे योग यज्ञ भी नहीं करते हैं।

 

रविदास जी ऐसे समाज में ऐसी शासन व्यवस्था चाहते है जहाँ सबको भोजन मिले, कोई भी भूखा न सोये और जहाँ छोटे-बड़े की कोई भावना न रहे सभी मनुष्य समान हो और प्रसन्न रहे इसी मैं रैदास भी प्रसन्न है।

 

पराधीनता पाप है,

जान लेहु रे मीत।

रैदास दास पराधीन सो,

कौन करे है प्रीत।।

 

रविदास वर्णव्यवस्था और उससे उत्पन्न जातिभेद तथा अस्पृश्यता का खंडन करते हैं-

 

रविदास जनम के कारने,

होत न कोई नीच।

नर कूं नीच कर डारि है,

ओछे करम की कीच।।

 

रविदास का धर्म जातिविहीन हैं,वह मनुष्य को महत्व देता है-

 

धर्म की कोई जात नहीं न जात धर्म के माह।

रविदास चले जो धर्म पे करेंगे धर्म सहाय।।

जातपात के फेर मह उरझि रहे सब लोग।

मानुषता को खात है रविदास जात का रोग।।

 

रविदास को न मस्जिद से कुछ लेना है, न मंदिर से कोई प्यार है। वह न अल्लाह को मानते हैं और न हरि को। स्पष्ट है कि वह न हिन्दू हैं, न मुसलमान। यथा

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मस्जिद सो कुछ घिन नहीं,

मंदिर सो नहि प्यार।

दोउ अल्ला हरि नहि,

कह रविदास उजार।।

 

रविदास जी विनम्र भाव से कहते है की हे मित्र, इस संसार में किसी की गुलामी स्वीकारना, उसके अधीन रहना सबसे बड़ा पाप है इसलिए मनुष्य को कभी गुलाम बन कर नहीं रहना चाहिए तथा जो गुलाम होते है उनसे कोई प्रेम भी नही करता।

 

रविदास हमारो राम जी,

दशरथ करी सूत नांहि।

राम हमऊ मांहि ऱमि रहयो,

बिसव कुटम्बह माहि।।

 

रविदास जी कहते है की हमारे राम दशरथ के पुत्र नहीं है, हमारे राम तो हमारे शरीर में ही बसे हुए है, और सारा विश्व ही उनके लिए एक परिवार (कुटुंब) है। और वे सारे विश्व में ही रमें है।

 

रविदास मदिरा का पीजिए,

जो चढ़ी-चढ़ी उतराय।

नाम महारस पीजिए,

जो चढ़ नहीं उतराय।।

 

रविदास जी कहते है की लोगो को ऐसी मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए, जिसका नशा जल्दी ही उतर जाए, बल्कि ऐसे ज्ञान रस का सेवन करना चाहिए,जिसका नशा एक बार चढ़ने के बाद फिर कभी नहीं उतरे, अर्थात जीवन का अन्धकार सत्संग से दूर होता है।अतः ज्ञानवान साधू सन्तों से संपर्क मे रहना चाहिये।

 

का मथुरा, का द्वारका,

का कशी हरिद्वार।

रविदास खोजा दिल अपना,

ताऊ मिला दिलदार।।

 

रविदास जी तीर्थ भ्रमण को व्यर्थ बताते है,वे कहते है की मेरा भगवान न तो मथुरा में निवास करता है, न द्वारका में न ही कशी और हरिद्वार में उसे खोजना तो व्यर्थ है। क्योंकि मेरा मालिक तो मेरे दिल में रहता है, व्यर्थ के आडम्बर से क्या लाभ।

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रविदास बांभन मत पूजिए,

जो होवे गुण हीन।

पूजिए चरन चंडाल के,

जो हो ज्ञान प्रवीन।।

 

रविदास जी कहते है अगर ब्राम्हण में गुण नहीं है तो उसकी पूजा नहीं करनी चाहिए, बल्कि उस चांडाल के चरणों को पूज लेना उचित है जो गुणों से युक्त है। यहाँ उनका अभिप्राय है की मनुष्य जाती के आधार पर ऊँचा नहीं होता है बल्कि गुण व कर्म से श्रेष्ठ होता है।

 

रविदास सत मति तिअरगिये ,

जो लो घट मांहि प्रान।

सत भृष्ट करी जगत मांहि,

सदा होत अपमान।।

 

रविदास जी सदबुद्धि की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते है की सदबुद्धि का कभी भी त्याग मत कीजिये क्योंकि जिस तरह से हमारे शरीर में सांसो का संचार हो रहा है, उसी प्रकार सदबुद्धि का भी।इसलिए आदमी जिस दिन भ्रष्ट हो गया उसी दिन से संसार में उसका मान-सम्मान भी नष्ट हो जाएगा और मान सम्मान के बिना जीवन व्यर्थ है।

 

इस प्रकार हम रविदास को भी एक ऐसे धर्म के व्याख्याता के रूप में देखते हैं,जो हिन्दू मुसलमान के धर्मों से पृथक हैं। समतावादी है और मानववादी है।

 

इस प्रकार हम देखते हैं रविदास की मुख्य प्रवृत्तियों में गुरु को मानना, आतम राम को मानना, अवतारवाद का विरोध, छुआछूत और जातिभेद का खंडन तथा हिन्दू मुसलमान से परे मानव धर्म का समर्थन है।

 

दलित संत श्रमजीवी हैं, कठोर श्रम करके जीविका कमाते हैं। इसी श्रम का हिन्दू व्यवस्था ने शोषण और दोहन किया है।उन्हें सामाजिक हीनता का शिकार बनाया है तथा उनको आर्थिक रूप से परतंत्र बनाकर उनके विकास को रोका है।

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संत रविदास की जीवनी पर नजर डालें तो पाते हैं उन्होंने अपने समाज के बारे में कहा कि मेरा ऐ दलित समाज यज्ञ नहीं करते हैं और न वेदों के ज्ञान में आस्था रखते हैं। वे ब्राह्मण को श्रेष्ठ नहीं मानते, वरन् मनुष्य को श्रेष्ठ मानते हैं और उसका सम्मान उसके गुणों से करते हैं। रविदास जी हरिभक्त नहीं थे।उनकी दृष्टि में हरि का कोई महत्व नहीं था।

 

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