Mother of the Nation Ramabai Ambedkar : राष्ट्रमाता रमाबाई अम्बेडकर जी के जन्मदिन 7 फरवरी पर विशेष | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन


©राजेश कुमार बौद्ध
परिचय- संपादक, प्रबुद्ध वैलफेयर सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश.
Special on the birthday of Mother of the Nation Ramabai Ambedkar 7th February
डॉ.अम्बेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते थे, इसका अंदाज इन शब्दों से लगाया जा सकता है- “उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में। “
जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, डॉ. अम्बेडकर उन्हें प्यार से रामू कहकर पुकारते थे। उन्होंने रामू के निधन (1935) के करीब 6 वर्ष बाद 1941 में प्रकाशित अपनी किताब ‘पाकिस्तान ऑर दी पार्टिशन ऑफ इंडिया’ को रमाबाई को इन शब्दों में समर्पित किया है– ‘रामू की याद को समर्पित। उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।
समर्पण के इन शब्दों से कोई भी अंदाज लगा सकता है कि डॉ. अम्बेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते हैं और उनके जीवन में उनकी कितनी अहम भूमिका थी। उन्होंने उनके हृदय की उदारता, कष्ट सहने की अपार क्षमता और असीम धैर्य को याद किया है। इस समर्पण में वे इस तथ्य को रेखांकित करना नहीं भूलते हैं कि दोनों के जीवन में एक ऐसा समय रहा है, जब उनका कोई संगी-साथी नहीं था। वे दोनों ही एक दूसरे संगी-साथी थे। वह भी ऐसे दौर में जब दोनों वंचनाओं और विपत्तियों के बीच जी रहे थे।
जब अम्बेडकर ने रमाबाई को लंदन से लिखा,दाने-दाने को हूं मोहताज ऐसे दौर उनके जीवन में कई बार आए।पहली बार तब जब डॉ. अम्बेडकर 1920 में दूसरी बार अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए। जाने के पहले उन्होंने रमाबाई को घर का खर्च चलाने के लिए जो रकम दी थी, वह बहुत कम थी और बहुत ही जल्दी खर्च हो गई। उसके बाद उनका घर का खर्च रमाबाई के भाई-बहन की मजदूरी से चला। रमाबाई के भाई शंकरराव और छोटी-बहन मीराबाई -दोनों छोटी-मोटी मजूरी कर तक़रीबन आठ-दस आने (50-60 पैसे) रोज कमा पाते थे। उसी में रमाबाई बाजार से किराना सामान खरीद कर लातीं और रसोई पकाकर सबका पेट पालती थीं। इस तरह मुसीबत के ये दिन उन्होंने बड़ी तंगी में बिताए।कभी -कभी उनके परिवार के सदस्य आधे पेट खाकर ही सोते, तो कभी भूखे पेट ही। (वंसत मून,1991 पृ.25)
इधर रमाबाई बच्चों और भाई- बहन के साथ आधे-पेट या भूखे रहकर जीवन गुजार रहीं थीं, तो उधर कमोवेश यही हालात डॉ. अम्बेडकर के लंदन में भी थे। रमाबाई ने घर की इस आर्थिक हालात का वर्णन करते हुए एक पत्र उन्हें लिखा। जिसका जवाब इन शब्दों में अम्बेडकर ने दिया।
लंदन, दिनांक 25 नवंबर 1921
प्रिय रामू,
नमस्ते।
पत्र मिला। गंगाधर (अम्बेडकर पहला पुत्र) बीमार है, यह जाकर दुख हुआ। स्वयं पर विश्वास (भरोसा) रखो, चिंता करने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारी पढ़ाई चल रही है, यह जानकर प्रसन्नता हुई। पैसों की व्यवस्था कर रहा हूं। मैं भी यहां अन्न (दाने-दाने को) का मोहताज हूं। तुम्हें भेजने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी कुछ-न-कुछ प्रबंध कर रहा हूं। अगर कुछ समय लग जाए, या तुम्हारे पास के पैसे खत्म हो जाएं तो अपने जेवर बेचकर घर-गृहस्थी चला लेना। मैं तुम्हें नए गहने बनवा दूंगा। यशवंत और मुकुंद की पढ़ाई कैसी चल रही है, कुछ लिखा नहीं?
मेरी तबियत ठीक है। चिंता मत करना अध्ययन जारी है। सखू और मंजुला के बारे में कुछ ज्ञात नहीं हुआ। तुम्हें जब पैसे मिल जाएं तो मंजूला और लक्ष्मी की मां को एक-एक साड़ी दे देना। शंकर के क्या हाल हैं? गजरा कैसी है?
सबको कुशल!
भीमाराव
(शहारे, अनिल, 2014, पृ. 57)
रमाबाई और डॉ.अम्बेडकर ने एक साथ मिलकर समाज के लिए कितना और किस कदर कष्ट उठाया इसका वर्णन उन्होंने बहिष्कृत भारत की एक संपादकीय में भी किया है। उन्होंने इस बात विशेष जोर दिया है कि जिंदगी के एक बड़े हिस्सें में (जब अम्बेडकर विदेशों में पढ़ाई कर रहे थे) गृहस्थी का सारा बोझ रमाबाई ने अपने कंधे पर उठा रखा था।जब डॉ. अम्बेडकर विदेश में पढ़ाई करके वापस आए। तब उसके बाद भी सामाजिक कामों में इस कदर लग गए कि उनके पास 24 घंटे में से आधा घंटा भी रमाबाई के लिए नहीं बचता था। रमाबाई उस वक्त भी गृहस्थी का सारा बोझ अकेले उठाती थीं। बस फर्क यह पड़ा था कि अब अम्बेडकर आर्थिक सहायता करने की स्थिति में थे।
‘बहिष्कृत भारत’ के संपादकीय में रमाबाई को अम्बेडकर ने किया याद
दोनों ने सामाजिक कार्यों के लिए अपने सुख-चैन की कितनी कुर्बानी दी, इसका वर्णन अम्बेडकर ने इन शब्दों में किया है– “कौड़ी का फायदा न होते हुए जिसने एक वर्ष तक बहिष्कृत भारत के 24-24 कॉलम लिखकर जनजागृति का काम किया तथा उसे याद करते समय जिसने (अम्बेडकर) अपने स्वास्थ्य, सुख, चैन व आराम की चिंता न करते हुए अपने आंखों की बाती बनाया, इतना ही नहीं, इस लेखक डॉ.अम्बेडकर के विदेश में रहते समय जिसने (रमाबाई) रात-दिन अपनी गृहस्थी का भार संभाला तथा आज भी वह संभाल रही है।
यह लेखक (अम्बेडकर) के परदेस से वापस आने पर अपनी (रमाबाई) विपन्नावस्था में अपने सिर पर गोबर के टोकरे ढोने के लिए जिसने आगे- पीछे नहीं देखा,ऐसी अत्यन्त ममतामयी, सुशील तथा पूज्य पत्नी के संपर्क में जिसे चौबीस घंटे में आधा घंटा भी साथ बिताने को नहीं मिला।(प्रभाकर गजभिये, 2017 पृ.152)
यह संपादकीय ‘बहिष्कृत भारत’ समाचार-पत्र के एक वर्ष पूरे होने पर 3 फरवरी, 1928 ‘बहिष्कृत भारत का यह ऋण क्या लौकिक ऋण नहीं है?’ शीर्षक से लिखी गई थी।
इस संपादकीय में डॉ.अम्बेडकर ने रमाबाई को ममतामयी के मूर्त रूप में देखा है और उन्हें पूज्य जीवन- संगिनी के रूप में याद किया है। साथ ही इस बात पर दुख जताया है कि ऐसी पत्नी के साथ कुछ घंटे भी
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