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व्याकरण की भूल हुई है नीतीश कुमार से | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

–लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

नीतीश कुमार के दोनों बयानों की तारीफ होनी चाहिए। पहला : “जो शराब पिएगा, वह तो मरेगा ही।” अतः निर्णय है कि शराब से मौत पर कोई मुआवजा नहीं दिया जाएगा। मृतक ने कोई सत्कार्य करके तो प्राण गवायें नहीं। क्षतिपूर्ति काहे ? वरना फिर हर हत्यारे और डाकू के असहाय परिवार की भी मदद की जाए। दयायाचना होगी तब कि उनकी मृत्यु से आश्रित परिवार की आजीविका खत्म हो गई। ऐसे अनर्गल तर्क से वितंडा होगा। उस दौर में गुजरात में लंबी अवधि-तक कांग्रेस राज था। गांधीवादियों का। तब भी फोन पर शराब सप्लाई होती रही। स्थान का पता बस सही होना चाहिए। वहां अब यह सप्लाई-तकनीक अधिक आधुनिक और वैज्ञानिक हो गई है। विकास तो हुआ पर विकृत होकर। शासन की कोताही रही।

 

अब पुलिस की भूमिका क्या हो रही है ? प्राचीन एथेंस (यूनान) में राहगीरों और प्रजा की सुरक्षा हेतु सर्वप्रथम स्ट्रीट पुलिस का गठन किया गया था। उसके पहले सड़क पर जो भी तगड़ा होता था, वह दूसरे की रूपवर्ती भार्या को उठा ले जाता था। रावण टाइप ! अब तो पुलिस चौकी और थाने ही सत्ता के रहजन हो गए हैं।

 

बिहार में एक बड़े योग्य और चिंतनशील कांग्रेसी मुख्यमंत्री होते थे भागवत झा आजाद। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर स्वीकारा कि वे “दारोगा राज” को लोकोन्मुखी वे नहीं बना पाए। याद आए लोहियावादी राज नारायणजी जो हम युवाओं से नारे लगवाते थे : “इंदिरा तेरे राज में पुलिस डकैती करती हैं।” यह सिलसिला चालू है। बस यहीं नीतीश कुमार की विफलता हुई। थाने सभी निरंकुश हो गये। पटना के एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि एक पुलिस प्रमुख थे। थानेदारों से उगाही की रकम सियासतदां को नजराना में पहुंचाते थे। देसी शराब-उद्योगपतियों से अधिक वसूलते थे। बाद में वे महानिरीक्षक बने। इन्ही उपलब्धियों के कारण। उन्होने सत्ताधारी विधायकों को बड़ा लाभ पहुंचाया था।

 

नीतीश कुमार अब यदि शराबखोरी की टहनी के बजाय जड़ पर हमला करें तो बात बने। बिहार की ऐसी ही खबर है। शराबबंदी से डिस्टिलरी घर-घर निर्मित हो गई हैं। सप्लाई स्रोत पर हमला होना चाहिए। मसलन सारन के पुलिस प्रमुख (राजेश मीणा) ने बताया कि पांच हजार किलो देसी शराब को नष्ट किया गया है। पर जानना यह है कि आखिर यह बना कहां था ? वहीं नष्ट क्यो नहीं किया गया ? यह पुकार कि शराबबंदी में अब ढील दी जाए, समस्या का समाधान नहीं है। तो फिर रेपिस्ट के साथ भी रियायत हो। वेश्यावृत्ति को खुली अनुमति हो। वह भी पुरुष-सुख का साधन है। राजकोष की आवक भी आबकारी टैक्स से बढ़ती है।

 

ऐसा ही करने जा रहे हैं पंजाब में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान। उनकी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे दिया है कि अब “हेल्दी शराब” का उत्पादन होगा। यह शराब स्वास्थ्यवर्धक है ! वल्लाह ! क्या उपज है सरदार मान के मस्तिष्क की ? हालांकि उनकी बात विश्वसनीय हो सकती है क्योंकि वे पेय के बड़े निष्णात हैं। अकाली दल ने तो शिकायत भी की थी कि ये मुख्यमंत्री जी गुरुद्वारे में खुमारी की दशा में पाए गए थे। बिहार में तो आश्चर्य यह है कि चरित्र-संहिता के धर्मप्राण भाजपा विधायकों ने शराबबंदी का तीव्र विरोध किया।

 

अब कुछ पुरानी लोकोक्तियों के उध्दरण। स्काइथियन (प्राचीन ईरानी) संत एनाक्रसिस ने बताया : “अंगूर से पहले आनंद मिलता है, फिर नशा का मजा और अंत मे पश्चाताप।” पाक कुरान में कहा गया है कि “अंगूर की हर बेरी में शैतान बसता है।” यदि इसे मान लें तो उर्दू शायरी ही खत्म हो जाएगी, क्योंकि जाम का हर नाम वहीं होता है।

 

नीतीश कुमार ने मीडिया की आलोचना की कि उसने बिहार की खबर बढ़ा चढ़ा कर पेश की। अतिशयोक्ति है। बिहार मुख्यमंत्री का आरोप है कि अन्य राज्यों की देसी शराब से मौतों की खबर नहीं प्रसारित की गई। मगर यह पूर्ण सत्य नहीं है। अन्य प्रदेशों में किसी भी मुख्यमंत्री ने इतनी नैतिक कठोरता से मद्यनिषेध लागू नहीं किया है। आबकारी से आय के लालच में। आखिर नीतीश जेपी और लोहिया के चेले हैं। उनका सदाचारी व्यवहार का आग्रह है। इसीलिए वे सत्याग्रही हैं। वरना वे भी लालू यादव जैसे हो जाते।

 

अंत में आपातकाल के मेरे युवा साथी नीतीश को एक सुझाव दूँगा। कबीर की पंक्ति पढ़े : “बोली एक अनमोल”। अर्थात शब्द चयन और प्रयोग में सावधानी नीतीश बरत सकते थे। सर विंस्टन चर्चिल की भांति नीतीश चतुर वाक्य विन्यास कर सकते थे। एकदा चर्चिल ने ब्रिटिश संसद में कहा था : “इस सदन के आधे सदस्य झूठ बोलते हैं।” विरोध होने पर चर्चिल ने अपने को सुधारा और बोले : “स्पीकार साहब, मेरा कथन सही है : इस सदन के आधे सदस्य सत्य बोलते है।” नीतीश भी कह देते : “जो ऐसी पिएगा वह कैसे जिएगा” ? नीतीश ने बिजली इंजिनियरिंग पढ़ी। तनिक व्याकरण का भी अभ्यास कर लेते।

 

एक कर्मठ श्रमजीवी पत्रकार होने के नाते मेरी यह पुरजोर मांग है कि शराबबंदी कड़ाई और ईमानदारी से लागू की जाए। युवा रिपोर्टरों को ठर्रा और देसी पीकर मैंने कराहते, मरते देखा है। तरुण विधवाओं की चीत्कार सुनी है। वे सब निपुण पत्रकार थे, मगर दारू के व्यसनी। मौत ने जल्दी बुला लिया।

 


नोट– उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.


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