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बढ़ते जाना है | Newsforum

©राहुल सरोज, जौनपुर, उत्तर प्रदेश


मैं शून्य हूं, मुझे बढ़ते जाना है,

विचलित मन से विकसित मन तक,

प्रस्फुटित बीज से विशाल वन तक,

इस एकाकीपन से भीड़ भवन तक,

सब कुछ पाना है,

मैं शून्य हूं, मुझे बढ़ते जाना है।

 

उस क्षितिज के पार क्षितिज तक,

जहां किसी की याद ना हो,

मोह ना हो, मतभेद ना हो,

जहां किसी से द्वेष ना हो,

इस जीवन के क्षणभंगुर पन से,

उस जीवन के पार सतत तक,

बस लड़ते जाना है,

मैं शून्य हूं, मुझे बढ़ते जाना है।

 

जो आसमान में सबसे ऊंचा,

उस खग से ऊंचा है उड़ना,

हवा, हवा से जैसे जुड़ती है,

उससे भी मुझे तेज है जुड़ना,

जो असंभव सा है जग में,

संभव कर दिखलाना है,

मैं शून्य हूं, मुझे बढ़ते जाना है।।


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