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अदालत का मारा ! कहां पनाह पाये ? | ऑनलाइन बुलेटिन डॉट इन

के. विक्रम राव

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

लेखक इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।


 

  ज एक खबर पढ़ी, इलाहाबाद हाईकोर्ट की बाबत। लुभावनी लगी। हृदयग्राही भी। मगर थी बड़ी पीड़ादायिनी ! व्यथित हुआ। हाईकोर्ट का हाईटेक होना तो सुना था। पर उसका अर्दली भी हाईटेक हो जाये ? अद्यतन बन जाए ! (हाईटेक का अर्थ हैं ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार : “अत्याधुनिक मशीनों, खासकर इलेक्ट्रॉनिक तथा विधियों का प्रयोग करना।”) समाचार था कि कोई राजेंद्र कुमार नामवाला मामूली कारकून महाशय अपनी वर्दी पर पेटीएम का क्यूआर कोड लगाकर बख्शीश वसूलने और टिप लेने में संलिप्त था। इसी आरोप में कल (1 दिसम्बर 2022) उसे निलंबित कर दिया गया।

 

अनायास ही इसी न्यायालय का एक पुराना नजारा याद आ गया। उस दिन (बृहस्पतिवार, 12 जून 1975) के दोपहर को वरिष्ठ न्यायमूर्ति रहे जस्टिस विलियम ब्रूम, ICS, अपने पुराने कार्य भवन (न्याय मार्ग, धूमनगंज, अब प्रयागराज) में तीन वर्ष बाद गए। इस उच्च न्यायालय के बगीचे से भवन को सलाम किया। न्याय के इस पुनीत आस्थास्थल को ! कुछ देर पूर्व ही जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री के चुनाव को भ्रष्टाचार के दोषी होने पर निरस्त कर दिया था। सांसदी समाप्त कर दी थी। उसी कक्ष में यह फैसला सुनाया जहां कभी अभियुक्त के पिता जवाहरलाल नेहरू वकालत करते थे। तब इतिहास रच गया था। आपातकाल थोपा गया। मुझ जैसे श्रमजीवी पत्रकार उन हजारों में थे, जिन्हें तानाशाह ने जेलों में (मुझे तो देश के पांच में तेरह माह) कैद कर रखा गया था।

 

फिलहाल आज न्यायक्षेत्र में कदाचार पर आम जन का ध्यान अनायास खिंच जाता है। यह 1765 की टिप्पणी थी (विल्मोर सी. जे. इन आर बनाम अलमोन) कि : “न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का तत्काल निवारण होना आवश्यक है।” विलंब का ही अंजाम है कि इस औपनिवेशिक ब्रिटिश कानूनी प्रणाली पर लोकास्था क्षीण हुई है। मत्स्य न्याय में जैसी। बेचारा दीन याची कदाचित ही न्याय पाता हो। परस्पर वकील भले ही कठोर हरीफ हो, कैंची जैसे चलते हों। पर जो भी (मुवक्किल) उनके बीच में आया, काट दिया गया। न्यायिक उदासीनता पर इसीलिए तुर्की में एक कहावत आम है कि न वकील को पारिश्रमिक दो, न जज को नजराना दो और न पुलिस को रिश्वत। सीधे माफिया को पेशगी दे दो। जमीन का कब्ज़ा, शत्रु को ठिकाने लगाना, उधार की धनराशि की वसूली, जेल से रिहाई आदि सरलता से संपन्न हो जायेंगे। चीन का अनुभव भारत से एकसां है। चीन में कहावत है कि अदालत गाय लेकर जाओ, तो वकील को खर्चा देने के बाद, बिल्ली लेकर लौटो। जमीन-जायदाद का क्षेत्रफल भी सिकुड़ जाता है।

 

अतः न्यायतंत्र के भ्रष्ट आचरण पर चर्चा करें। उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायमूर्ति तेलुगूभाषी जस्टिस जस्ती चेल्मेश्वर राव ने कई बार वकीलों की शीर्ष संस्था भारतीय बार काउंसिल की आलोचना की थी। उन्हें “बेंच फिक्सिंग” के लिए गुनाहगार माना था। उनका आरोप था कि “बार काउंसिल के शब्दों में तर्क क्या खोजें ? वे तो मेरा नाम भी सही नहीं लिख पाते है।” इन्हीं जस्टिस चेल्मेश्वर की अध्यक्षतावाली दो-सदस्यीय खंडपीठ ने कोर्ट के कदाचार पर अहम फैसला दिया था। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के आरोप अक्सर लगते रहे हैं, लेकिन पटना उच्च न्यायालय की एक घटना ने यह सोचने पर बाध्य किया था कि न्यायपालिका में सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है। इस स्थिति से उबरने के लिये कठोरतम कदम उठाने और ऐसे आरोपों की जांच के लिये सुव्यवस्थित मशीनरी की आवश्यकता है। ऐसा सोचने की वजह दो-दो उच्च न्यायालयों के अलावा दिसंबर 2017 में उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण भी है, जिसमें तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने आनन-फानन में दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश जे. चेलमेश्वर की अध्यक्षतावाली दो-सदस्यीय पीठ का आदेश निरर्थक कर दिया था। ख्यात वैश्विक संगठन “ट्रांसपरंसी इंटरनेशनल” का कहना भी है कि : “दुनिया भर के न्यायाधीशों द्वारा व्यापक रिश्वतखोरी और कानूनी व्यवस्था में अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण लाखों लोग अच्छे और निष्पक्ष परीक्षण के अधिकार से वंचित रहते हैं।”

 

इसी अवधारणा के समर्थन में कतिपय भ्रष्ट पाए गए न्यायधीशों का उल्लेख हो : वर्ष 1949 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एसपी सिन्हा को उनके फैसले के आधार पर सरकारी अधिनियम 1935 के तहत हटा दिया गया था। वर्ष 1979 में भारत के प्रधान न्यायाधीश ने सीबीआई को मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के. वीरास्वामी (न्यायमूर्ति श्री वी. रामास्वामी के ससुर) के खिलाफ अनुपात से ज्यादा आय/संपत्ति का मामला दर्ज करने की अनुमति दी। तीन नवंबर 2002 को, कर्नाटक उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीश दो महिला अधिवक्ताओं के साथ एक रिसॉर्ट में शामिल हो गए। पुलिस पहुंची, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। मुकदमा था : न्यायाधीश एनएस वीरभद्रैया बनाम गोपालगौड़ा और चंद्रशेखरैया। भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त तीन न्यायाधीश की जांच समिति ने अपनी रपट दाखिल की। क्लीन चिट दे दी गई। सितंबर 2009 में, सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने “तहलका” पत्रिका की शोना चौधरी को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि पिछले 19 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट थे, टिप्पणी ने शीर्ष अदालत की अवमानना को बताया। फिर 17 सितंबर 2010 को इस पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में सनसनी मचा दी जब उन्होंने भारत के आठ पूर्व मुख्य न्यायाधीशों पर भ्रष्ट आरोप लगाते हुए एक आवेदन दायर किया और अदालत की अवमानना करते हुए उन्हें जेल भेजने की चुनौती दी ।

 

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